बहुरंगी भेड़िए / संपूर्णानंद मिश्र
बहुरंगी भेड़िए / संपूर्णानंद मिश्र
ऊपर से साफ़- सुथरी है
यह सतरंगी दुनिया
भीतर कुछ धुंधला, अस्पष्ट
संघर्ष ही संघर्ष
कुछ खास उनके लिए जो
नेपोटिज्म की सूई
अपनी बांहों में गोदवाए बिना
माला- फूल अक्षत
रोली चढ़ाएं बिना
आ जाते हैं
उन डीहों के दर्शनार्थ
स्वप्नों की चाबी से
अपनी किस्मत के बंद
दरवज्जे खोलने
अहमक होते हैं ये लोग
ढकेल दिए जाते हैं
रौरव नरक के
घोर, घुप्प अरण्य में
प्रतीक्षित है जहां
कई रंग के बहुरंगी भेड़िएं
जिनकी अपनी- अपनी मांग है
रवायत हैं, तौर तरीके हैं
ज़िस्मों के भक्षण हेतु।
समायी हुई पद-कामना की आंखों को
पढ़ने के मर्मज्ञ, निष्णात, होते हैं
क्योंकि जानते हैं ये कि
एक बोल्ड तस्वीर के
शूट होने की रूपहले पर्दे पर
क्या चढ़ना चाहिए चढ़ावा
होती रहती है
अनवरत लेन-देन
एक सुदीर्घ वितान के नीचे
हमारे देश का दरख़्त निरंतर
फलता- फूलता रहता है
होता रहता है यहां सफलतापूर्वक संपन्न
हर अनुष्ठान
क्योंकि
खरीद़- फरोख़्त की
मजबूत बुनियाद पर ही तो
केन्द्रित है यह सृष्टि
खूब फलीफूत होता है
जीयो और जीने दो
का अभंग सिद्धांत यह
तुम भी खुश
हम भी खुश
की दुनिया में यहां
कुछ भी पाना नहीं है असंभव
जितना बड़ा चरित्र
उतने रोड़े
उतने संकट
उतना ही ख़तरा
क्यों यह जोख़िम उठानी है
थोड़ा ढीला कर देने में
चरित्र के रबड़ को
क्या बुराई है
सफलता के शिखर पर
धुनी रमाने वालों ने
यह सब कुछ किया है
बिना संघर्ष, जद्दोजहद के
यह पथ
सतरंगी दुनिया
को जाता है
तो क्या हमें भी
अक्षत फूल लिए
इस पथ पर
चले जाना चाहिए ?