भाषा ख़तरे में / सम्पूर्णानंद मिश्र
भाषा ख़तरे में / सम्पूर्णानंद मिश्र
आज के समय में
ख़तरे ही ख़तरे हैं
इसलिए
साफ़ साफ़ मत बोलो
कुछ मिलावट रक्खो
अपनी भाषा में
बिल्कुल खिचड़ी की तरह
आज के समय में
अपने शब्दों को यदि
भाषा की आंच पर
अधजली रोटी की तरह जला सकते हो
दाल की तरह ठीक- ठीक पका सकते हो
तो निश्चय ही ख़तरे से भरे
इस बहुरंगी जीवन में कुछ अनावश्यक अनर्गल आगत ख़तरों की आग में
झुलसने से तुम भाई
अपने को
साफ़- साफ़ बचा सकते हो
जिन- जिन लोगों ने
अपनी भाषा में द्विअर्थी शब्दों का मक्खन नहीं मिलाया
वे बेचारे
भगवान को प्यारे हो गए
क्योंकि
ऐसे जीवों की दुनिया
मृत्युलोक में नहीं
ब्रह्मलोक में है
यदि
प्रगतिशीलता की दौड़ में
सबसे आगे रहना चाहते हो
तो तुम्हें
अपनी भाषा
गलानी पड़ेगी
शब्दों को चबाने की आदत डालनी होगी
सच को
खिड़कियों से बार-बार
झांकने की अपनी प्रवृत्तियों
पर पूरी तरह से
अंकुश लगानी होगी
और
और इस ख़तरे की बहुरंगी दुनिया में द्विअर्थी शब्दों की भाषा
ठीक- ठीक
अपनी कविता में लानी होगी
तभी तुम यहां
महफ़ूज रह सकोगे
नहीं तो तुम भी भाई
ईश्वर को प्यारे हो जाओगे!
सम्पूर्णानंद मिश्र
शिवपुर वाराणसी
7458994874