चान्द्रायण छंद | मत्तगयंद सवैया | बाबा कल्पनेश
1.चान्द्रायण छंद
मानव का धन ज्ञान,शास्त्र कहते यही।
करना जग उपकार,सुखी होती मही।।
देना नित-प्रति दान,नदी ज्यों नीर दे।
खेकर अपनी नाव,गुहा ज्यों तीर दे।।
मानव का धन सार,धैर्य धरते चलो।
गुरुपद रज ले शीश,सदा फूलो-फलो।।
यह सुखकर संवाद,दीन बनना नहीं।
करके नीचा कर्म,कभी खलना नहीं।।
होकर पौरुषवान,धान्य अर्जित करो।
दीन-हीन भर पेट,सौख्य उर में भरो।।
मिले जगत में मान,साधना यूँ करो।
जैसे सीमा वीर,राष्ट्र हित में मरो।।
बनना पौरुषवान,उदाहरण नेक हो।
तिलक माथ पर टीक,जीव अभिषेक हो।।
करके विविध विचार,बुद्धि चेता कहे।
महके ज्यों जग फूल,जीव ऐसा रहे।।
पाल-पोष शिशु काल,तुम्हे पलना रखे।
मात-पिता की बात,मान चलना सखे।।
धर्म यही हर काल,साथ देगा सदा।
ज्यों रक्षक हनुमान,भक्त हित ले गदा।।
जो जन होते वीर,पीर जग की हरें।
सुखी रहे संसार,पाँव ऐसा धरें।
नारी का हो मान,वेद सब बोलते।
दान-धर्म सविशेष,मार्ग नित खोलते।।
करो वेद सम्मान,मार्ग सच्चा मिले।
जीवन रहे नवीन,पुष्प जैसा खिले।।
बनना नहीं प्रवीण,साम्य रखना भला।
तभी लीजिए जान,व्यक्ति फूला -फला।
धर्म एक ही श्रेष्ठ,ज्येष्ठ है सर्वदा।
नित-प्रति शिव-शिव गान,करे ज्यों नर्वदा।।
यह चान्द्रायण छंद,मूल आनंद है।
चित चिंतन कर गान,हृदय निस्पंद है।।
भागीरथ तप मूल,यहाँ गंगा बही।
पर नारी जब दृष्टि,बसी लंका ढही।
कठिन धर्म उपदेश,गुरुवर ज्ञान हो।
सद्गुरु महिमा दान,आचरणवान हो।
2. माँ
विधा-मत्तगयंद सवैया
विधान-भगण×7+2 2
माँ मुझको निज आँचल में रख चुम्बन लेकर के कहती है।
वर्ष हजार मिले क्षण को इस हेतु सभी दुख को सहती है।।
मिष्ट लगे कितना शिशु चुम्बन मिष्ट नदी लगती बहती है।
पीर महान कगार गिरे भव भीति यहाँ सगरी ढहती है।।
मुक्ति यहाँ कलगान करे हरि भक्ति मनोहरता अति प्यारी।
मौन यहाँ कविता विखरी कवि लोग दिखे जिस ठाँव भिखारी।।
माँ ढँक आँचल दूध पियावत और करे शिशु की मनुहारी।
लाल निहारत माँ दृग में जिसमें सजती जग की फुलवारी।।
माँ सहती हर कष्ट मिले पर चुम्बन सागर में नित डूबे।
चुम्बन सागर की लहरें लख कौन भला जिसका मन ऊबे।।
शेष-महेश-गणेश-गिरा वचनामृत पान करें सब सूबे।
माँ ममता हर अंक लिखे लिखना न इसे कवि काव्य अजूबे।।
क्षीर भरा लहरे नित सागर गागर से हम हैं शिशु सारे।
माँ निज क्षीर पियाय सुखी शिशु सौख्य भरें ममता दृग डारे।।
काव्य कला हर छंद कला ममता बल से नित माँ निरुआरे।
शोभित हो शिशु का दृग भूषण काजल माँ निज हाथ सँवारे।।