श्रवण कुमार पांडेय की रचनाएँ | Compositions of Shravan Kumar Pandey
श्रवण कुमार पांडेय की रचनाएँ | Compositions of Shravan Kumar Pandey
भक्तजनों को खलेगा कथ्य,
अनाथ पुत्री थीं जानकी सीता,,,,01
साक्ष्य जीवन्त जनश्रुति में,
खेत से ही प्राप्त हुई थी सीता,,,,02
त्याज्यता को मिला आँचल,
पितु वक्ष पा जी गई थी सीता,,,,03
जनक संकल्प पूर्ति पथ पर,
बाहुबल तुलना विंदु थी सीता,,,,04
कोई दूजा न पति के सिवा ,
अप्रतिम पूज्य आज भी सीता,,,,05
दिव्यता और शौर्य का सेतु ,
रावण वध का हेतु बनी सीता,,,,06
आजीवन जीवन संघर्ष,में,
प्रभुचरणरत रह जियीं सीता,,,,,07
क्या महल, क्या वन्त जीवन,
जीवंत,पावन उदाहरण सीता,,,,,08
अपनों संग में,गैरआधीन हो,
सदा पावन पुनीता रहीं सीता,,,,09
रहा आधार सतीत्व बल का
डिगी नही शत्रु वन्दिनी सीता,,,,10
दुःख था अपार जानकी को,
धैर्य की प्रति मूर्ति बनीं सीता,,,,,11
हमारा वांग्मय पूजता उन्हें,
विश्व में नही हुई,दूसरी सीता,,,,,12
नारी जगत की धन्यता थीं,
सिद्ध श्रेष्ठ सहचरी थीं सीता,,,,,13
विपरीत समय में शील का,
अक्षत सोदाहरण बनीं सीता,,,,,14
धन्य धन्य भारत भूमि यह,
जाकी कोख में जन्मीं सीता,,,,,,15
,,,,,,,,,,,,,,,,,
किसी सुहृद की अभिव्यक्ति से ,,
प्रेरित मेरी इस पोष्ट में यह कथन ,,,,,,,,
भक्तिभाव में रंगे हुए बहुत से लोगों को अखरेगा,
निवेदन है,,,,,
जब हम अतीत के किसी अनुकरणीय चरित्र पर विश्लेषणात्मक विवेचना के साथ संवाद करते हैं तो इसे अभक्ति के रूप में नही देखा जाना चाहिए,,,,
समाज में आचरण सन्दर्भ में ,
अंतिम अकाट्य सच जैसा कुछ ,,,,
बहुत कम होता है ,,,
सबकी अपनी अपनी दृष्टि होती है ,,
हां इतना अवश्य है कि ,,,
श्रद्धास्पद चरित्रों के विमर्श में ,
भाषा पर विशेष नियंत्रण रखते हुए ,
अपनी बात सविनय रह रखनी चाहिए,,,,,,
सभी को यह स्वीकार्य है कि ,,,,
जगतजननी जानकी कन्या रूप में,,,,, मिथिला नरेश जनक जी को धान्यहींन कृषि भूभाग में हल कर्षण की गतिविधियों के संचालन के मध्य प्रजा की उपस्थिति में मिली थी,
सभी के मध्य सन्तान सुख से वंचित जनप्रिय नरेश जनक ने उसे सहज भाव से उठाकर हृदय से लगा लिया,और अपने पीछे पीछे चल के कूंड में अन्न के बीज डालती चल रही राज महिषी सुनयना की गोद मे हर्षातिरेक भाव से दे दिया था,सुना और कहा गया है, कि राजमहिषी के आंचल में दूध उतर आया था,
यह एक महान विद्वतपुरुष का ,नृपति का जीव अनुकूल सदाचरण था,
यह राजधर्म के सर्वथा अनुरूप भी था, किसी राजा के राज्य क्षेत्र में जो भी जीवित प्राणी होता है, नरेश उसका प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष स्वाभाविक पालन हार होता है,
नृप जनक को सहसा लगा कि ,,,,
इस कन्या को पाकर उन्होंने बहुत कुछ पा लिया,बह चली हर्ष के अतिरेक से अश्रुओं की सहज धार,
कन्या प्राप्ति से मिट गई नृपति की सन्तान हीनता,
छंट गई उनके मन से अब तक विधि प्रदत दीनता,
शायद इसी क्षण के लिए विधाता ने उन्हें सन्तान हींन रखा था,
नृपके कृत्य को प्रकृति ने अपना क्रियात्मक समर्थन दिया था,
लोग कहते हैं कि,,,
सीता को गोद मिलते ही,
नभ में सघन घन लहराये थे,
चलने लगी थीं मेघ वाहक हवाएं,
नभ में गुंजित हुई मेघ गड़गड़ाहट ,
होने लगे थे शुभ शुभ के सुसगुन
बरसने लगे नीर समृद्ध बादल,
प्यासी धरती जल तृप्त हुई ,
प्रकृति की मेघमय छांव में ,
अतिहर्षित जनसमूह की ,
सहज सब भांति साक्षी में,
सीता,जनकनन्दिनी हुई ,
सहज चल पड़ी रीति,
अनाथ हुई सन्तानों को ,
मन से सहज अपनाने की ,
मानवीय श्रेष्ठतम सुपरम्परा,,,
अद्यतन निरन्तरजारी सर्वत्र ,
श्रेष्ठतम मानवीय परम्परा,,
ईश सृजित अगजग में ,
सभी को जीने का हक है,
सीता आज भी वांग्मय में,
सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है,
पूज्यनीय है सतत
जनक लाडली,
संघर्ष की विजेता ,
पुनीता सीता लली,,
जय परम् पुनीता
मातुश्री सीता,,,,,,,
श्री सीता,,,,,,
परम् पुनीता,,,,,
जय जनक नन्दिनी,
क्षण क्षण अभिनन्दिनी,,
आज भी ,,,,
कूड़े के ढेर में पड़ी कन्याएं ,,
उदार लोगों के द्वारा अपनाई जाती हैं,
हमारे वांग्मय में,,,,
सीता कर्ण कबीर आदि तमाम उदाहरण मौजूद हैं,
ऐसे ही श्रेष्ठजनों की वजह से ,,,
आज जगत में मानवता का वजूद है,
अवैध शिशु को ,,,,
वह किसी भी लिंग का हो उसे अपनाना चाहिए,
जन्म देकर फेंक देने वालों को ईश से दण्ड पाना चाहिए,
जगत में हैं ,,,,
अभी भी लोग करुणाधाम ,
जो मानवीय करुणा के आधार हैं,
जो भी जन्मता है इस जग में उसको जीवित रहने का मूल अधिकार है,
२.
एक हिंदी संस्कृत अंग्रेजी उर्दू भाषा का विद्वान कवि ,,,
बाईक से कवि सम्मेलन के बाद अपने घर जा रहा था,
चौराहे पर पुलिस वाले ने रोंका और गाड़ी के कागज मांगे,।
कवि ने कहा,,,
अहो भद्रपुरुष ममहस्ते कागजम नास्ति,
डोंट बिलमा यारा ,मोये जान दे यारां,
पुलिस वाले ने कहा,,,,,,ओह ,नो ,,,,निकालो,, सौ रुपये,
कवि ने कहा,,,,,,,अहं हस्ते हैव नाऊ नाट शत रूप्यकाणी,लिसेंन टू माई चन्द अल्फाज,
मैं हूँ,हिंदी का बौख्यात कवि,मन्चचन्द गिरधारी,
सुनना चाहो तो सुना दूँ,नर्म गर्म कविता प्यारी,,
पुलिस वाले ने कहा ,,,सौ रुपए दो और निकल लो ,,नही तो आपका चालान कटेगा,,,,
कवि ने कहा,,,,,,
वयम जब प्रकट हुआ,
बेकागज प्रकट हुआ था,
मेरे पास कोई चलान न था,
जन्मकक्ष में मुद्रा मसान न था,
दिस इज माई दीर्घशंका वक्त ,,
नास्ति बेवक्त मचलिये,
कागजार्थ बाईक मालिक से ,
आपश्री जाकर मिलिए,
द्विचक्रवाहिनी इज मेरी टोटली नाट,,
अहो चतुर्दिकपथ हेतु नियुक्त सम्राट,,,
पुलिस वाले ने कहा,,,लगता है,यह चोरी की बाईक है, चलिये कोतवाली,,,,,
कवि ने कहा,,
सूर्योदय का सुशोभन वक्त है
दीर्घशंका शमन का शुभ वक्त है ,
अहो ,मिस्टर खाकी नाटी मेंटल मैन,
माई स्टमक ,हो रहा भभकती लालटेन,
पुलिस वाले ने कहा,,, चोरी की बाईक है,
सुना नही आपने,,यू शटाप,
बकबक की तो दूंगा कंटाप,
कवि ने कहा,,,,
चोरों को तो सभी चोर नजर आते हैं,,,
यत्र तत्र सर्वत्र आप जैसे मिल जाते हैं,,,
हल्लो मिस्टर डंडाधारी ,,,,
यह बाईक मुझे घर तक जाने के लिए मिली है,
यह अस्थिर वस्तु रातभर के लिए,
मेरी है,
सुबह होते ही यह गड्ढापथगामिनी अपने मालिक के पास चली जायेगी,
यह नितांत चलती फिरती लौह माया है,
यत्र तत्र सर्वत्र नजर आएगी,
आज किसी के पास,
कल किसी अन्य के पास,
परसों अन्य किसी के पास,
यह नाशवान भी है,आदि नश्वर,,
इसके लिए सम वर्षा या मधुमास,
मैं कवि हूँ,कलम भांजता निडर होकर,
व्यर्थ है आपका मुझसे धन आहरण प्रयास,
पुलिस वाले ने पूंछा,,,भाई जी ,,,,आपका नाम, पता क्या है ,आप करते क्या हैं,,।
कवि ने कहा,,,,श्रीमदअच्युत जनार्दन श्रीहरि जगतमायावशवर्ती
ममकर्म,,,,मंचजीवीशब्दमाधव,लिफाफानुसारे श्रोतानुरोध पालक,विडम्बना वध समर्थम ,
मम सङ्गे सर्वदा सदाशिव,जगन्मातसहितम,
ममआवास ,,,,,शतम शताधिक उदरम्भर अनुदानित प्रांगण,
99 ,अबे तबे ,हां बे ,बोल बे,कालोनी,
धत्त भौकालीदास रोड,सर्वजन्तु नगर,,,,,
मम शहर,,,,कल्पतरु सिरफिरा पिल्लई,, मम जनपद,,,,एकादस ठेंगापुर,,
सिंगा स्वामी गढ़ ,,,,मम प्रदेशम अस्ति,,
पुलिस वाले को माथा टटोलते देख,,,,
कवि ने कहा,,,,,,
अहो मुद्रार्थी भद्र कापुरुष ,,
कृपया कुरु अतिशीघ्र निर्णय निर्गतम,
गंतव्य हेतु प्रस्थान करने में ,
बाधक न हो,ममाकांक्षा है सुभागतम ,,,,
पुलिस वाले ने कहा,,,,जाईये, आप महान विद्वतपुरुष हैं,
अगली बार जब इधर से आना तो सर पर हेलमेट जरूर होना चाहिए,, ओ ,के,
कवि ने कहा,,,ओ, के,,
कवि तत्क्षण प्रस्थान कर गया,
पुलिस वाला अभी भी प्राप्त ज्ञान सम्भाल रहा है,,,,
३. अथ चुनाव पचीसी
लड़ें चुनाव जन धनबल वालें,
बेतलब का है रैसा ,बैठे ठाले,
नकबहन के भाव चढ़त रहत,
सोल्हर धोखार भाखा बदलत,
संगी ,साथी लागत हैं कतरांय,
बदल डारत हैं भाखा ,सुभाय,
हम कीच, पनरवा न नाकब,
सबले मुलुर, मुलुर न ताकब,
हम न फिरब अब गांव, गांव,
हमना पिरवईबे ई अपन पांव,
हे, हम कबो न लडिबे चुनाव,,,,,,001
जीतन की भला कौन गरण्टी,
खाली होई जाई जोगई अंटी,
घर मा आज तलक जीते ना,
बाहर बजईबे कसत घुनघुना,
दांतन के बींचमा सांसा होइगे
सिकरौडा कहाँ ,कहाँ बिनिबे,
यहिमा भरे बहुत बड़े अताब,
बेमतलब की यामें खांव खांव,
लफड्डन केना गहब हाँथ पांव,
तुम रहैं देव हमका न सिखाव ,
हे ,हम कबो न लडिबे चुनांव,,,,,,002
ठेलुहन का न कहिबे भईय्या,
हम ना बाँटब झूंठी गुलइय्या,
रिरिया के पिपिहरी न बाजी,
कहिबे ना हम हां जी,हाँ जी,
शुभ कामना चही तो लै लेव,
हमका तो जस हन रहन देव,
लफद्दर हमार ना पाला होई,
यौ खेल न अब ख्याला होई,
अब बुढापा मा न ताव देवाव,
कहाँ पईबे नेतन के हाव भाव,
हे ,ह। कबो न लडिबे चुनांव,,,,003
बाद मा तगादन का चले लट्ठा,
केतनेव का बैठ जात है भट्ठा,
केतनेव बन जात दुआर ताकू,
चांपत पान सुपारी औ तमाखू,
मेहरारु गरियऊती मन ही मन,
दिन भर करती है हनन भनन,
झूंठी ब्वॉलत रहत हैं धूर्त यार,
गुरु जीत चौगिरदा होई तुम्हार,
हमरे गरे जिम्मेदारी का गेरांव
कोऊ केत्तो कहै खईबे न दांव,
हे,,हम न ,कबो लडिबे चुनांव,,,,,004
कहां से लाब जरीकैन दारू के,
ढोकत असली के,औ उढ़री क़े,
आवैं दुआरे मा ठेलुहा छोलहंट,
बहिनी बिटियन का धर्म संकट,
दुई सौ के ऊपर हवे करू तेल,
ठेलुहा खइंहें धरिके पेल ,पेल,
जितेन तो होईबे, पड़ाका नाम,
हारे तो ठुस्सपाद धड़ाका नाम,
हम केखे केखे जा गिरब पांव,
नाहक न भटकब ठांव कुठांव,
हे, हम कबो ना लडिबे चुनाव,,,,,005
४.
कबहुं न भण्डुआ रन चढ़े,कबहुं न बजी ढप,चंग,
सकल समाज प्रणाम करि, गमन करत कवि गंग,
,,,,,और इसके बाद हांथी के पैरों के तले कुचलवा कर मारे गए,,,क्योंकि उनके भीतर का कवि स्वाभिमान जाग उठा था,,,,,कवि का स्वाभिमान,,, सत्ता को कभी नही पचा,,,, यह विडंबना है,,,,,
सत्ता ,,,,,सदा चापलूसी सुनना चाहती है,,,,
सत्ता को दमदार नही,,,, दुमदार कवि चाहिए,,,
सत्ता को ज्ञान नही,,,,,,मन माफिक मनोरंजन चाहिए,,,,
सत्ता कवि को सदैव मजा का बिरवा समझती है,
मौलिक कवि की कविता महलों में नही,,,अभावग्रस्त कुटीरों में,,,,वनांचल में,,,उपेक्षा के परिवेश में,,,,आत्मतोषी के देह के भीतर के अन्तःपीडा के प्रदेश में जन्म लेती है,,, कविता सुनती नही कहती है,,,, कविता थमकर लहराती नही,,,निर्वाध बहती है,,, कविता कभी डरती नही,,, मरती नही,,,,,कविता मांगती नही,,,सदा देती है,,,,कविता,,, अमर है क्योंकि वह सविता है,,, कविता में योगदान सत्ता का नहीं वरन कवि का है,,,,
आज जनता भी सत्ता के जैसे आचरण करती है,
देवनदी गङ्गा,,सूर्यतनया यमुना के मध्य ओआबा क्षेत्र में स्थित जनपद फतेहपुर में उत्तर दिशि गङ्गा तट पर अवस्थित अश्वनी कुमारों की अवतरण स्थली ग्राम असनी ,फतेहपुर उत्तर प्रदेश में जन्मे ,,,,,,,,,,,,,,हिंदी भाषा के महान कवि,,,, गंग,,, का यह अंतिम काव्य कथन,,,,,,,,कबो न भण्डुआ रण चढ़े,,,
मेरे भीतर के कवि को सदैव अंकुश में रखता है,,,,,,,,,,,,
यह ऐतिहासिक सत्य है कि,,,,,
कवि का स्वाभिमान कभी भी सत्ता को रास नहीं आया,,,,मौलिक कवि ने कभी ठकुरसुहाती नही गाया,,,,, बाल्मीकि,,, सूर,,तुलसी,,,कबीर,,, निराला,,,नागार्जुन,,,, केदारनाथ,,,,धूमिल को सत्ता ने नही आमजन ने जीवित रखा हुआ है,,,,आज भी वही हालात हैं,,,,,,, स्वाभिमानी कवि को सत्ता नही आमजन अमर रखता है,,,,,अतीत के यह मौलिक कवि आमजन की स्मृति में अमर हैं, जिन्होंने जीविकार्थ कभी राजाश्रय नही अंगीकार किया,,,,वे कालजयी हैं,, प्रणम्य हैं,,,,
आज जनरुचि का स्तर गिरा है तो इसकी वजह आमजन नही वरन कवि ही हैं,,,जो मोह न नारि ,,नारि के रूपा ,
,,,की तर्ज में परस्पर ही प्रतिस्पर्धी हैं,,,,आज धूर्त छुटभैय्ये भतार बदलते रहते हैं,, ताकि मंच में रहें,,, परस्पर मंच विनिमय करते हैं ताकि मंच में रहें,,, कविता नही मनोरंजन करते हैं,,, ताकि मंच में रहें,,,, झुण्ड बनाते हैं ताकि मंच में रहें,,, ठकुर सुहाती गाते हैं ताकि मंच में रहें,,, षडयंत्र करते हैं ताकि मंच में रहें,,,लुकछिप कर आते जाते हैं ताकि मंच में रहें,,, वेश्यावत रम्भाते हैं ताकि मंच में रहें,,, अवसर जुटाते हैं ताकि मंच में रहें,,,,और बहुत कुछ करते हैं ताकि मंच पर रहें,,,,,
,,,,,,,,
स्वाभिमान के आलोक में,,,,,, मैंने अपनी रचनाधर्मिता को भीतर के कवि को यथासम्भव,सयत्न येनकेन रक्षित रखने का भरसक यत्न किया है,
जय सृजन,,,,जय सुजन,,,, मेरा ध्येय वाक्य है,,,,
सुजनों ने ,मुझे त्यागा नही,दुर्जनों से ,मेरी निभी नही,
जो लिखा निडर होकर लिखा,चारण कभी रहा नही,
सृजन,,,,कभी भी मंच का मोहताज नही होता,,,,,,,,,
एक कवि के रूप में मैं सुजन सामीप्य का सदा अहसास करता हूँ,
परमात्मा को साक्षी मानकर माँ भारती का दास बन सृजन करता हूँ,,
सुजन,,,, कभी नाहर की जगह म्याहर हेतु नही रोता,,,,,,,,
जय सृजन,जय सुजन,,,
जय भारतीय जनगण,,,
,,,,,,,,,,,,,
मुझे ख्वाहिश नही छा जाने की,अखबार की सुर्खियों की खातिर नही लिखता,
मुझमें सब्र है, जो प्राप्त सो पर्याप्त वाला, कवि हूँ,गायकों की तरह नहीं बिकता,
अफसोस ,दिल में इस बात का,कि कलम वाले भी अब बिकने लगे हैं बाजार में,
मेरे दर्द का ईलाज मेरा स्वाभिमान है,सो मैं जाता नही किसी के भी दरबार में,
कवि हूँ,कवि का काम क्या होता मुझे यह ठीक से पता है, मेरा देश मेरा देवता,
दरबार में जाकर कविता तो हो जायेगी,मर जायेगा कवि जो मैं देख नही सकता,
हर हाल में जिंदा रहे मेरे भीतर बैठा कवि दुआ कीजिये गुजारिश है अपनो से
लिख डाले वह सब जो आज तक लिख नही पाया,साथ में रहो,अर्ज अपनों से,
बहुतों के शब्दों में था ,माहौल बदल देने का माद्दा,आये बहुत से लोग जिंदगी में,
कुछ तो शौकिया, कुछ पेट के लिए, कुछ गलीच थे,खप गए हैं बेचारे वन्दगी में,
पहले भी शिकार होता था,वन्य पशुओं का शौकिया, या जीभ के स्वाद के लिये,
अब शिकार होता,जरूरतमन्द का,बेगैरत कवि का,शिकारी हैं धनवान बहेलिये,
जो भी है मेरे पास ,वह पर्याप्त है,दम नही किसी माई के लाल में करे शिकार मेरा,
जब जब आंच मेरे स्वाभिमान पर आयी
खण्ड खण्ड किया है,अहंकारियों का घेरा,
कवि में यदि स्वाभिमान नही है तो मेरी नजर में वह गायक है शख्श कवि नही ,
हम वंशज कवि गंग के,भले ही वक्त का हांथी कुचले ,हम मुजरे वाले कवि नही,
५. अगर होते फुटपाथ नही ,,,,,,
लोग ठंड से मरे फुटपाथ में छपा अखबार में,
लगभग हर शहर के दिखे,हालात एक जैसे ही,,,,,01
यह दर्द तो आज देश की हर सड़क में है,
आमजन के लिए अब बहुत विशेष बात नहीं,,,,02
फुटपाथ में पैदा लोग बेलिहाज रोज मरें,
इनके वास्ते होता कहीं पर कोई विकास नही,,,,,03
इनकी मय्यत पर किसी को रोते नही देखा,
किसी मुंह से कढते ॐशांति के जज्बात नही,,,,04
इनको न जाने कौन जन्म दे दफा हो जाता,
इनकी मौत से शहर में गम काबिल बात नहीं,,,,,05
मर्द तो शाम से ही नशे में टुन्न हो सो जाते,
लाचार भूंखी औरते बिताती हैं रात सब कहीं,,,,06
यह फुटपाथ में पैदा होते,बेनाम ही मर जाते ,
हुक्मरानों की नजर में यह कोई खास बात नही,,,,,07
तमाम रईशजादे,अंधेरे में आते हैं हल्के होने,
इनकी पैदावार रोके व्यवस्था की औकात नही,,,,08
जमाने से इस देश में,फुटपाथों में वंश पलते,
इनको भी घर दे,किसी सरकार की बुतात नहीं,,,,09
तमाम जरूरतें भ्रूण ढोतीं,जनती फुटपाथ में,
शिशु,कैशौर्य,युवता,बुढापा,मौत फुटपाथ में ही,,,10
यह दर्शनशास्त्र का विषय है, चिंतन के योग्य,
यह भीड़ कहाँ टिकती अगर होते फुटपाथ नहीं,,,11