हरिश्चन्द्र त्रिपाठी ‘हरीश’ का रचना संसार | भरत-भूमि की जय-जय-जय हो
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१. भरत-भूमि की जय-जय-जय हो।
आओ आज धरा पर लिख दें,
मिल कर नयी कहानी ,
भरत-भूमि की जय जय जय हो,
हर सन्ध्या भोर सुहानी।टेक।
चलें सुपथ पर साथ सभी के,
सबके हित की बात करें,
खिले-खिले हों तरु-तर-उपवन,
एक नयी शुरुआत करें।
ना मुरझाने पाये कोई,
छलके नवल जवानी ।
आओ आज धरा पर लिख दें,
मिल कर नयी कहानी।1।
झर-झर-झर निर्झर से सीखें,
नित धूप-छॉव सब सहना,
चट्टानों के साथ मचलते,
पुलकित हो नीचे गिरना।
गीत नये संगीत प्राण में,
स्वर-लय की नयी रवानी।
आओ आज धरा पर लिख दें,
मिल कर नयी कहानी।2।
नीलाम्बर को चलो नाप लें,
ढ़ूॅढें इसका पावन छोर,
रवि-शशि-तारों को समझायें,
मानव नहीं तनिक कमजोर।
तप-त्याग-तपस्या ऊर्जामय,
परहित बात बतानी।
आओ आज धरा पर लिख दें,
मिल कर नयी कहानी।3।
मातृभूमि प्रिय कण-कण इसका,
बलिदानों की थाती है,
निर्भय पौरुष-शौर्य-पराक्रम,
कालजयी परिपाटी है।
भौतिकता की चकाचौंध में,
बहॅके नहीं जवानी।
आओ आज धरा पर लिख दें,
मिल कर नयी कहानी।4।
२. गीतों से बस प्यार किया
मत पूछो मेरे कोमल मन पर,
कब किसने कितना वार किया।
बस एक अकेला जीवन भर मैं,
हॅस कर सब स्वीकार किया ।टेक।
बचपन की हर डगर सुहानी,
खुलकर खेल न पाया,
सतरंगी सपनों की दुनिया,
कभी देख ना पाया।
लहरों का बेखौफ मचलना,
फिर भी नदिया पार किया ।
बस एक अकेला जीवन भर मैं,
हॅस कर सब स्वीकार किया ।1।
मौसम जब अंगड़ाई लेता,
बाग-बगीचे सब खिल जाते,
खुशियों में हर दिशा झूमती,
पथ के शूल फूल बन जाते।
यौवन की दहलीज सुहानी,
रोम-रोम श्रृंगार किया।
बस एक अकेला जीवन भर मैं,
हॅस कर सब स्वीकार किया।2।
मिल गये अचानक तुम मुझको,
जीवन-पथ पर चलते-चलते,
तन दो थे मन एक हो गया,
व्यथा-कथा सुनते-कहते।
तुमसे शब्द मिले होंठों को,
गीतों से बस प्यार किया।
बस एक अकेला जीवन भर मैं,
हॅस कर सब स्वीकार किया ।3।
नील गगन से लगता मुझको,
जैसे कोई झॉक रहा है,
श्रम-स्वेदकणों से लसित भाल को ,
पुनि-पुनि बॉच रहा है।
घना अंधेरा हर घर-चौखट,
दीप जला उजियार किया ।
बस एक अकेला जीवन भर मैं,
हॅसकर सब स्वीकार किया।4।
३.मन उसको नव वर्ष कहेगा।
फिर-फिर याद करेगा कोई,
फिर-फिर याद सतायेगी।
मंगलमय हो जीवन अनुपल,
सुखद घड़ी फिर आयेगी।1।
सुख-समृद्धि का ताना-बाना,
तार-तार उर -बीन बजे।
खुशहाली की मलय सुरभि से,
कलम और कोपीन सजे ।2।
समरसता की प्रखर धार में,
भेदभाव बह जायें सब।
सबसे पहले राष्ट्र हमारा,
नव विकास अपनायें सब।3।
नहीं किसी का मन दुख जाये,
सबको स्नेह लुटायें हम ।
अमर संस्कृति के रक्षक बन,
मॉ का कर्ज चुकायें हम।4।
साथ प्रकृति का यदि हम देंगे,
धन-धान्य पूर्ण नव हर्ष रहेगा।
दिशा बहॅकती फसल मचलती,
मन उसको नव वर्ष कहेगा।5।
चलो एक क्षण मान रहा मैं,
नव वर्ष तुम्हारा आया है।
आप मुदित हैं यही सोच कर,
मन मेरा भी हरषाया है।6।
नश्वर जीवन,कर्म हमारे,
सुख-दुःख के निर्णायक हैं।
सबके हित की सुखद कामना,
मातृभूमि गुण गायक हैं।7।
सबका साथ विकास सभी का,
ना शोषण की गुंजाइश हो।
मिले प्रकृति का संरक्षण यदि,
सुखकर दो हजार बाइस हो।8।
४. मुझे तुम्हारी चाह
पवन तनय-गुण ध्यान उर,
कर्म करो निष्काम।
परछाईं बनकर रहें,
सीतापति श्रीराम।1।
स्नेह सुधा बरसे सदा,
उर-अन्तर सहकार।
कटुता का परित्याग हो,
सजे राम-दरबार।2।
मन मलीन करना नहीं,
मुदित हृदय हर काम।
पथ-बाधा न रह सके,
करो सदा सतकाम ।3।
पतझड़ को भी सराहिए,
वक्त वक्त की बात ।
ऋतुराज स्वयं आकर करे,
फिर-फिर नव शुरुआत।4।
कहने को सब लोग हैं,
सबकी अपनी राह।
मायावश कहते फिरें,
मुझे तुम्हारी चाह।5।
चलना तुझको ही पड़े,
कर ले पथ उजियार।
अभी समय तू बॉट ले,
कलुष-हीन उर-प्यार।6।
मैं तो मैं में मिट गया,
रहना तू होशियार।
काम, क्रोध,मद,लोभ सब,
कर देंगे बंटाधार।7।
५.अजी दिल तुम्हारा
बस तुम्हें देखने की, तमन्ना लिए हूॅ,
मय तो तेरे प्यार, की मैं पिये हूॅ।1।
परवा नहीं है ,दिल क्या कहेगा।
अजी दिल तुम्हारा ,तुम्हें मैं दिये हूॅ।2।
गालिब से बढ़कर,मुहब्बत की बातें,
कोई कर सका न,ना मैं किये हूॅ।3।
दर्द ही दर्द, जिन्दगी में मिले,
कहूॅ क्या किसी से,जुबॉ तक सिये हूॅ।4।
कहना है जो कुछ,खुशी से कहो तुम,
पूछो न कितनी ,दुआयें लिये हूॅ।5।
नहीं भूल पाता,सफर जिन्दगी का,
जिन्दा मैं फिर भी ,जहर ज्यूॅ पिये हूॅ।6।
६.चिर निद्रा में सो जाना है।
धूल धूसरित हो जाना है,
मिट्टी मिट्टी में खो जाना है।1।
जब तक जागो,उछलो,कूदो-
चिर निद्रा में सो जाना है।।2।
मनहर लगती माया नगरी,
कंचन काया खो जाना है।3।
धर्म-कर्म का मर्म समझ कर,
मैल हृदय के धो जाना है।4।
भाव-विचारों की खेती में,
बीज प्रेम के बो जाना है ।5।
आपा-धापी,झीना झपटी,
इस जीवन में रोजाना है।6।
व्यर्थ उदासी, चिन्तन कर ले,
यदि आया है तो जाना है।7।