दुविधा / डॉ० सम्पूर्णानंद मिश्र
दुविधा
अथाह बल
किस काम का
जिसकी खुली आंखें
धर्म की ध्वजा फटते
देखती रहीं
रक्षार्थ चीखती रही
एक स्त्री की आत्मा
तब वह विवशता का मनहूस
गीत गाता रहा
शोभित होता है
ऐसा पुरुषार्थ सिर्फ़ और सिर्फ़ दर्पण में
शरशैय्या का संताप
शारीरिक रूप से कम रहा हो
लेकिन मानसिक ताप
तो मानों पराकाष्ठा पर था
जो न जीने देता था
और न मरने
ऐसी वीरता भी अच्छी लगती है
इतिहास के पन्नों में
या तो कहानियों में
जो काम आ जाती हैं
यदा-कदा नई पौध को सुनाने में
किसने कैसे पहनी
मृत्यु की माला
अहम प्रश्न है यह
त्रेता में
गिद्धराज दुविधा में नहीं था
अपराध- बोध से मुक्त था
न चेहरे पर कोई
संताप
न अवसाद
क्योंकि
एक स्त्री के रक्षार्थ
थी उसकी सार्थक मृत्यु