हितकारी हर बुद्धि विमल हो | हरिश्चन्द्र त्रिपाठी ‘हरीश’
हितकारी हर बुद्धि विमल हो।
गिरजाघर,गुरुद्वारा जाकर,
मन्दिर,मस्जिद दौड़ लगाकर,
मन को शान्ति नहीं मिल पाई,
चौखट-चौखट दीप जलाकर । टेक।
सतरंगी परिधान रुपहले,
सपनों के वे महल-दुमहले,
तेरी सुधि की अमराई में,
भटके कदम चले जो पहले।
संयम की जंजीर देखते,
असहाय स्वयं को हुए लुटाकर।
मन को शान्ति नहीं मिल पाई,
चौखट-चौखट दीप जलाकर ।1।
चिन्तन में था उर निर्मल हो,
स्नेह लुटाता हर परिमल हो,
घर-ऑगन ज्योतित हो जाये,
हितकारी हर बुद्धि विमल हो।
नव नूतन परिवेश बनायें,
द्वेष-दम्भ , मतभेद भुलाकर।
मन को शान्ति नहीं मिल पाई,
चौखट-चौखट दीप जलाकर ।2।
धुऑ-धुऑ क्यों नील गगन है,
जहर लुटाता मलय पवन है,
सदियों की मिट रही धरोहर,
बिगड़ गया हर चाल-चलन है।
लाभ-हानि की चिन्ता किसको,
सुख-समृद्धि में आग लगाकर।
मन को शान्ति नहीं मिल पाई,
चौखट-चौखट दीप जलाकर।3।
हरिश्चन्द्र त्रिपाठी ‘हरीश’,
रायबरेली (उप्र) 229010
9415955693