होंठों पर रस-गागर धर दो | हरिश्चन्द्र त्रिपाठी ‘हरीश’
होंठों पर रस-गागर धर दो | हरिश्चन्द्र त्रिपाठी ‘हरीश’
हौले से छू लो तन मेरा,
माटी कंचन हो जाये,
सॉसों के इस महल-दुमहले,
का अभिनन्दन हो जाये।टेक।
रोम-रोम सिहरन भर जाती,
भोर-प्रभाती या सॅझवाती,
किससे कहूॅ व्यथा हृदय की,
नेह नयन में खुद शरमाती।
होंठों पर रस-गागर धर दो,
फिर तो चन्दन हो जाये।
हौले से छू लो तन मेरा,
माटी कंचन हो जाये।1।
धूप दुपहरी में तप सन्ध्या,
कब जाने कैसे कौन सजी,
सुधि की पावन अमराई में,
प्रिय स्नेहिल बंशी मौन बजी।
दृग रहे निरखते आ जाओ तुम
ऑखों में अंजन हो जाये।
हौले से छू लो तन मेरा
माटी कंचन हो जाये ।2।
नहीं किसी के साथ जमाना,
आओ छेड़ें नया तराना,
अपने भाव विचारों से हम,
खूब लुटायें स्नेह खजाना।
मस्त-मुदित हो तेरा यौवन,
बागी कंगन हो जाये।
हौले से छू लो तन मेरा,
माटी कंचन हो जाये।3।
हरिश्चन्द्र त्रिपाठी ‘हरीश’,
रायबरेली (उप्र) 229010
9125908549