मुद्दतें हो गईं मुस्कराए हुए / राजेंद्र वर्मा ‘राज’
मुद्दतें हो गईं मुस्कराए हुए / राजेंद्र वर्मा ‘राज’

कितने बादल उदासी के छाए हुए।
मुद्दतें हो गईं मुस्कराए हुए।।
अब मैं अपना किसी को भी कहता नहीं।
जिनको अपना कहा सब पराए हुए।।
फिर रहे थे अँधेरा लिए रूह में।
कुछ बदन चाँदनी में नहाए हुए।।
कितना मुश्किल है लोगों को पहचानना।
सब हैं चेहरे पे चेहरा लगाए हुए।।
सब समझदार थे झूठ की गोद में।
एक पागल था सच को उठाये हुए।।
मेरी नज़दीकियों को तरसते थे जो।
अब वो फिरते हैं दामन बचाए हुए।।
हम उजाले नहीं मांँगते भीख में।
हमने छत पर हैं सूरज उगाये हुए।।
लोग ढूँढा किए दूसरों की कमी।
ख़ुद गुनाहों को अपने छुपाए हुए।।
वो न बोलेंगे हरगिज तुम्हारी तरह।
वो हैं बच्चे हमारे पढ़ाये हुए।।
‘राज’ उससे हमेशा अदब से मिलो।
तुमसे मिलता है जो सर झुकाए हुए।।