मुझको ही छलते आये। आज की कविता

मुझको ही छलते आये। आज की कविता

दे-दे करके मुझे नसीहत,
मुझको ही छलते आये,
नहीं किसी ने राह दिखायी,
जिस पर हम चलते आये।टेक।

धूप-छॉव सब सहती माटी,
नहीं कभी कुछ कहती माटी,
ऋतुओं के संग मस्ती करती,
पानी पा कर बहती माटी।
अपनी पहचान बनी माटी से,
माटी संग रहते आये ।
दे-दे करके मुझे नसीहत,
मुझको ही छलते आये।1।

क्षिति-जल-अम्बर किसे पुकारूॅ,
सबमें अपना रूप निहारूॅ,
सपने इन्द्रधनुष बन मन के ,
साथ मलय के उसे सॅवारूॅ।
आओ साथ चलें सब मिलकर,
सबसे हम कहते आये।
दे-दे करके मुझे नसीहत,
मुझको ही छलते आये ।2।

कब तक करूॅ प्रतीक्षा उनकी,
किसे सुनाऊँ पीड़ा मन की,
मर्यादा की सूखी सरिता,
कैसे लाज बचे उपवन की।
सम्बल दे दो अपनेपन का,
तनहॉ सब सहते आये।
दे-दे करके मुझे नसीहत,
मुझको ही छलते आये।3।

हरिश्चन्द्र त्रिपाठी’ हरीश’,
रायबरेली (उप्र) 229010
9415955693

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