नदी | झूठी दिलासा – डॉ० सम्पूर्णानंद मिश्र
नदी
जब तलक नदी बनकर जिएंगे
लाखों की प्यास बुझाते रहेंगे
समुन्दर से मिलने की चाहत में तो
अपनों से बहुत दूर चले जायेंगे
कब किसी की प्यास बुझी है समुंदर से
नदी की दो बूंद से ही तो नई ज़िंदगी मिली है
सरिता जब- जब बननी चाही विशाल समुन्दर जैसा
रिश्तों की अपनी मज़बूत सीवन ही उधेड़ लायी
विश्वास का धागा मज़बूत हो
तो संबंधों की एक कश्ती ही भवसागर पार करा देती है
अविश्वास की नाव तो सागर में भी डूब जाती है
झूठी दिलासा
जिन्हें दुनिया ने हर कदम पर ठुकरा दिया
उनको गले हम लगाने लगे
थोड़ा सा अंधेरा क्या आया मेरे जीवन में
मुझे रौशनी का पाठ पढ़ाने लगे
मैं गर्दिश में था इसलिए चुपचाप सुनता रहा
हर बात को उनकी तुलसी के मानस की तरह गुनता रहा
हद तो तब हो गई ज़नाब
जब दुनिया के सामने मेरे गुनाहों को गिनाने लगे
कभी नज़र न लगे कायनात की
मैं उन्हें उनकी नज़रों से बचाता रहा
आज जब कश्ती की मुझे जरूरत पड़ी
तो छेद कई है यह मुझे बताने लगे
अब कैसे यकीन करूं साकी दोस्तों-यारों का
आज ज़रूरत पड़ी है तो मुझे रास्ता बताने लगे
जब पिछली बातों की याद दिलायी
तो यह तो रीति है कायनात की बताने लगे
मेरे आंखों से जब आंसू निकल पड़े
तो मुझे झूठी दिलासा भी दिलाने लगे