प्रकृति के “आंचल” | नरेंद्र सिंह बघेल की कविता

प्रकृति के “आंचल” की सौगात का एक दृश्य बिंब ,एक लघु प्रयास ।

भेद कर तम का प्रहर फिर ,
भुवन भाष्कर आ गया ।
धूप का “आँचल “सुनहरा ,
फिर क्षितिज पर छा गया ।।
गुनगुनी यह धूप सबको ,
अक्षत ऊर्जा दे रही ।
कड़कड़ाती ठंड भी ,
देखो विदा अब ले रही ।
शरद के संताप का,
हरने कहर फिर आ गया ।
धूप का आँचल सुनहरा ,
फिर क्षितिज पर छा गया ।।1।।
फिर कुहाँसे का कहर औ ,
धुंध की चादर नई।
हिमकणों से झाँकते ,
प्रतिबिंब से दर्पण कई ।
रश्मि रथ पर भोर में फिर ,
इक चमक बिखरा गया ।।
धूप का आँचल सुनहरा ,
फिर क्षितिज पर छा गया ।।2।।
भोर में पक्षी चहक कर ,
गीत गायन कर रहे ।
तितलियों के झुंड भी,
पुष्प भधुरस ले रहे ।
फिर गिलहरी के फुदकने ,
का दिवस अब आ गया ।।
धूप का आँचल सुनहरा ,
फिर क्षितिज पर छा गया ।।3।।
-नरेन्द्र सिंह बघेल

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