Ram par kavita lyrics | Ram par geet | Ram ki Vedana

राम की वेदना | Ram ki Vedana

अश्रु झरे थे अवध नगर के महलों और गलियारों से
छोड़ चले सब धरम धुरंधर,आंगन और चौबारों से।
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राजमहल में सोने वाले,राजकुंवर के कोमल तन,
उधर सुकोमल पांवों में भी आए होंगे छाले भर।
नैन भरे थे राम लखन के सिया के नाजुक घावों पर
और सिया भी रोई होंगी,राम के घायल पांवों पर।
रोई सरजू रोई लहरें,निकली आह किनारों से,
अश्रु झरे थे अवध नगर के,महलों और गलियारों से


चले लिए परमार्थ कटंकित कुशों के कानन कानन में
जीवन का अनुराग सजोए,प्रकृति के अभ्यारण्य में
पुरुषोत्तम दृढ़वती राम,गिर गिर कर पुनः संभलते थे
साथ लखन सिय धैर्य समेटे तनिक न विचलित होते थे।
कभी कभी तो जल पीकर ही तीनों जन रह जाते थे।
और कभी कुछ फल खाकर ही अपनी भूख मिटाते थे।
मोर नृत्य करते थे सम्मुख,पक्षी उतरे डालो से,
अश्रु झरे थे अवध नगर के,गलियों और चौबारों से।


दूर हुई फिर सिया एक दिन,राघव के श्री चरणों से,
हर लाया था रावण उनको अपने झूठ प्रपंचों से।
रात कटी होगी कैसे और दिन कैसे बीते होंगे,
फटा हृदय जब कहें सिया कि राम बिना कैसे जी लें।
इधर राम के नयन निरंतर ,प्रिय की छवि को ढूंढ रहे।
नदी हिमालय कुंज भ्रमर से सिया सिया ही पूछ रहे।
रोए कूल किनारे राघव के आंखों के धारों से,
अश्रु झरे थे अवध नगर के महलों और गलियारों से
**
रावण का बध करके राम सिया को लाए राजमहल
राम राज्य की पुरवाई में झूम रहा साकेत नगर।
हुआ राज्य अभिषेक तरंगे,आसमान को छूती थी,
राम राज्य आ गया ,लुटाती नगरी मन में मोती थी।
चकाचौंध होती थी नगरी,दीपों के उजियारों से,
अश्रु झरे थे अवध नगर के,महलों और गलियारों से


प्रश्न हाय फिर उठा अग्नि सा,जला पुनः साकेत नगर।
राम जले तृण तृण अब कैसे,होगा हमसे विरह
सहन।
काट लिया वनवास न दुख है लिखा नियति में क्या
विधि ने।
कृष काया हो गई थी सीते ,जब आई थी लंका से
मां बनने वाली है अब तो,कैसे त्याग करूं उसका।
कठिन परीक्षा लेने को यह धर्म का संकट आज खड़ा।
दुखी प्रजा के ही पालक थे,प्रजा की बात कुठारों पर
अश्रु झरे थे अवध नगर के महलों और गलियारों से
**
राम विकल है कौन सुनेगा,आज राम की बारी है,
कैसे प्रिया जिएगी मुझ बिन,कैसी ये लाचारी है।
जगते थे श्री राम मगर मन और प्रकंपित होता था,
धैर्य आज बस दूर खड़ा,विश्वास तनिक न सोता था
सोचो कैसे राम ने सीता को जंगल भेजा होगा।
ज्ञात नही था सीय को अगले क्षण ही कुछ ऐसा होगा।
राज महल का कण कण रोया होगा कठिन विचारों पर
अश्रु झरे थे अवध नगर के महलों और गलियारो से।


चली गई फिर जनक नंदिनी अरण्य घूमने चली गई
वन की सुषमा शोभा की चातक प्यारी फिर छली गई
शांत लखन मुख मलिन देख देवर से पूछ रहीं बातें।
कहो लखन क्या दुख है तुमको बैठो हो क्यों चुप
साधे।
हृदय थाम कर कहा लखन ने भाभी हमसे पाप हुआ।
क्षमा करो जिभ्या कट जाए,आप ही का परित्याग
हुआ।
कांप रहे थे लखन और कह डाले कथा कुचालों की।
अश्रु झरे थे अवध नगर के महलों और गलियारों से

शांत रही जननी सब सुनकर,रोष बहुत आया होगा
न्याय धर्म की बात कहां है,न्याय तो पछताया होगा
भविष्य लिए वह राज महल का छोड़ चली रथ घोड़े को।
रोक दिया लक्ष्मण को निकट न आना जब वो दौड़े
तो।
सुकुमारी थी किंतु व्रती थी धरिणी की तनया थी वो
धारण जो करती पर्वत को सागर सी कन्या थी वो।
चोट बहुत खाई सीते ने, अपनो के व्यवहारों से,
अश्रु झरे थे अवध नगर के महलों और गलियारों से।

हाय राम की दीन दशा हो जाती बिन मछली जल के
सिया मरी या जीवित है कोई संदेश मिले कैसे?
आज यह राजा राम नही प्रियतम सीता का रोया है
गर्भवती पत्नी को मैंने निर्वासित कर खोया है।
जी करता है जाकर सरजू के कगार पर बैठूं अब।
ले लो अपने राज सिया दो मेरी सबसे कह दूं अब।
शीश टिका कर रोए रघुवर खंभे और दीवारों से।
अश्रु झरे थे अवध नगर के महलों और गलियारों से।

बीत गए नौ मास सिया बस राघव का ही नाम रटे,
श्री चरणों की याद में केवल सिय के दिन और रात कटे
कष्टमई वो रात थी जिसमें जन्मे दो बालक प्यारे।
राम सिया सी छवि समेटे,राम सिया से ही प्यारे।
संस्कार के वैभव से भर दिया पुत्र का तन और मन
पढ़े ऋचाएं जब वेदों की गुंजित हो जाता था वन।
महक उठा था सारा उपवन लव कुश के संस्कारों से।
अश्रु झरे थे अवध नगर के महलों और गलियारों से।


समय बीतता गया अवध में कोई ताप नही टिकता
लेकिन स्वयं में राघव को ही अपना राम नही दिखता
कैसे अन्तर को समझाएं कहा नही जाता सीते,
बिना पाप के लांछन लगना सहा नहीं जाता सीते
सरि की ठांव गए तो रघुवर जी भरकरके रोए थे,
पीछा करते आए लखन तो मुस्का कर मुख धोए थे।
दूर हुए हैं राम स्वयं के पत्नी पुत्र दुलारों से।
अश्रु झरे थे अवध नगर के महलों और गलियारों से।


इधर यज्ञ के घोड़े को फिर लव कुश ने जब बांध लिया।
वीर सभी मूर्छित हो सोए,हनुमान को साध लिया।
चले किलकते मईया को कौतुक दिखलाने बानर का।
उन्हें पता क्या वीरव्रती के बंध जाने का ही मन था।
देखूं तो ये कौन कुंवर हैं,किसने जन्म दिया इनको।
अवध नगर के इस कानन ने चूम लिया जिनके मुख को।
समझ गए हनुमान बंधे हैं चंचल सिया कुमारों से,
अश्रु झरे थे अवध नगर के महलों और गलियारों से
**
मां मां देखो बानर आया आज हमारी कुटिया में।
कुछ फल दे दो मां खाने को,जल भी दे दो लुटिया में।
आई दौड़ी जनक सुता आश्चर्य चकित सी रही ठगी
पवन पुत्र को बंधा देख कर स्वयं जड़ी सी रही खड़ी।
खोले बंधन पवनपुत्र के तपस्वनी सीता माता।
नैनों से फिर कष्ट हृदय का रह रह उभर उतर आता।
कह डाला फिर कथा बली ने,कथा तीर बौछारों से
अश्रु झरे थे अवध नगर के महलों और गलियारों से
***”

इधर राम हो रहे कुपित कि कौन अश्व को बांध लिया।
कौन धुरंधर मेरे सम्मुख किसने ऐसा कार्य किया।
आना पड़ा अवधपति को फिर यज्ञ अश्व छुड़वाने को।
भेज दिए कुछ सैनिक खोए हनुमान ढूंढवाने को।
चकित हुए श्री राम देख दो छोटे ये तापस बालक।
कौन भला ये हो सकते जो धारण करते शर घातक
पड़े सोच में राम जो देखे योद्धा गिरे कतारों में।
अश्रु झरे थे अवध नगर के महलों और गलियारों से।
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दौड़ी सिया साथ हनुमत भी देखे खड़े राम रघुवर
लवकुश करते तर्क राम से,राम उठे अचरज से भर
कहा सिया ने रुको पुत्र ये पिता इन्हे प्रणाम करो।
चरण धूलि लो शीश पर अपने,इनको अपना धाम कहो।
देख रहे थे राम अहा सीतें तुम कितनी धनी रही।
राम अकिंचन आज खड़ा तुम तो धरती सी घनी रही।
उपवन झूमा राम मिले जब अपने राज दुलारोंं से
अश्रु झरे थे अवध नगर के महलों और गलियारों से
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पिता से मुनि के संरक्षण में मैंने तप यह कर डाला।
बालमीकी मुनि आश्रम में ही मैंने सुत दोनो पाला
राघव अपनी गोद इन्हे लो,अपने पुत्र संभालो अब
भविष्य अवध का सौप रही हूं,इनको तुम सा ढालो अब।
कहा राम ने सिया चलो अब अवध तुम्हे बुलाता है
कहते हुए ये राम तुम्हारा आज बहुत सकुचाता है
कह कर रोए राम पुनः दुलराए बहुत दुलाराें को।
अश्रु झरे थे अवध नगर के महलों और गलियारों से।
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थक गई हूं हे राघव अब मन होता है सोने का,
अर्थ नही अब कोई स्वामी मेरा अवध में होने का।
जाने से पहले ही स्वामी अब मैं धरा समाऊंगी।
रोकर कहने लगी जानकी,लेकिन अवध न जाऊंगी
फटी धरा और सिया समाई धरती मोद मनाएगी।
धरा बिलखने लगी सिया अब कभी लौट न आएगी।
भीड़ उमड़ आई थी लेने माफी और मनुहारों से
अश्रु झरे थे अवध नगर के महलों और गलियारों से।।

श्रीमती पुष्पा श्रीवास्तव शैली
रायबरेली।

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