रोटी / बाबा कल्पनेश

रोटी

विधा-कुंडलिया

रोटी होती श्वेत है,गोल चकत्तेदार।
हो गरीब या धनी ही,भर देती मुख लार।
भर देती मुख लार,अधर तक छलके पानी।
संत-असज्जन-चोर,वणिक-ज्ञानी-अज्ञानी।।
मति विवेक दो टूक,करे अतिशय यह खोटी।
जागे जिस क्षण भूख,बने मृगजल जब रोटी।।

रोटी से सन्यास ले,कौन जगत में वीर।
वाह विधाता को कहूँ,भेजा जब मुख चीर।।
भेजा जब मुख चीर,क्षुधा की रचकर आगी।
जग के जितने जीव,दिखे इसके अनुरागी।
काँध मेखला धार,तथा सिर लम्बी चोटी।
हर मर्यादा तोड़,झपट लेते हैं रोटी।।

रोटी विविध प्रकार की,धरे अनेकों रूप।
जिसके आगे विज्ञ जन,कहलाते मति कूप।।
कहलाते मति कूप,बिसर गरिमा निज जाते।
जैसे कोई श्वान,लखे रोटी ललचाते।
कलम कहे धर चूप,दिखे जो अतिशय छोटी।
उदर जगे जब भूख,मिले कैसी भी रोटी।।

रोटी का संचय करें,नेक मार्ग से आप।
कहते वेद पुराण हैं,कटे जगत त्रय ताप।।
कटे जगत त्रय ताप,यजन रोटी से करिए।
जीव क्षुधा को देख,उदर उनका नित भरिए।।
सारे तिकड़म त्याग,अनैतिकता की गोटी।
यज्ञ सफल तब जान,यही कर देती रोटी।।

2 . मिया जब बन उभरे नादान

सोचो इसका तोड़,मिया जब बन उभरे नादान।।
आया अंधा मोड़,सँभलना मेरे हिंदुस्तान।।

इनके पीछे कौन,घिनौना जिनका ऐसा काम।
मुस्लिम पत्थर बाज,बने हैं करते वे आराम।
त्याग प्रगति के पंथ,चलो रे कसकर मुठ्ठी तान।
आया अंधा मोड़,सँभलना मेरे हिंदुस्तान।।

जैसे काले नाग,उमड़ कर उगल रहे विष ज्वाल।
नगर हो रहे क्लांत,मनुजता रोती है बदहाल।।
जो भारत के शत्रु,लिखो अब खुलकर के पहचान।
आया अंधा मोड़,संभलना मेरे हिंदुस्तान।।

कल करते थे बात,प्रगति की मंदिर-मस्जिद छोड़।
करे व्यवस्था यत्न,उभारे भारत में नव मोड़।।
और आज वे लोग,वतन का हरण कर रहे मान।।
आया अंधा मोड़,संभलना मेरे हिंदुस्तान।।

कहे लेखनी ख्याल,बताओ यह कैसी दुर्नीति।
कौन तानता मध्य,हमारे लम्बी-चौड़ी भीति।।
बाहर से आलाप,उठे जो ताल मिला सहगान।
आया अंधा मोड़,सँभलना मेरे हिंदुस्तान।।

देता बल यह कौन,उठाओ अब पत्थर निज हाथ।
एक वंश उद्भूत,झुकेगा जग में किसका माथ।।
यह किसकी करतूत,हताहत होती अपनी शान।
आया अंधा मोड़,सँभलना मेरे हिंदुस्तान।।

बाबा कल्पनेश

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