साहब जी | हिंदी कहानी | रत्ना भदौरिया
साहब जी | हिंदी कहानी | रत्ना भदौरिया
मुझे दिल्ली से आये हुए आज पन्द्रह दिन हो गये थे, नौकरी से बार -बार फोन आने लगे थे लेकिन शरीर ने अभी तक नौकरी पर जाने का अलार्म नहीं बजाया था पता नहीं इसलिए की इतने दिन से लेटी थी या फिर तबियत ठीक नहीं हुई कुछ समझ नहीं आ रहा था। फिर भी नौकरी बचाने के लिए घर से निकलना था , मां ने सुबह से ही पूड़ी- कचौड़ी बनाकर बैग तैयार कर दिया था ट्रेन की टिकट नहीं मिल रही थी इसलिए सामान्य डिब्बे में सफर करने का मन बनाकर घर से कपड़े पहन शाम को चार बजे निकल पड़ी।
ट्रेन का समय छः बजे था घर से स्टेशन की दूरी आधे घंटे की लेकिन जल्दी इसलिए निकलना पड़ा क्योंकि पांच बजे के बाद कोई साधन नहीं मिलता। स्टेशन पहुंच सामान्य डिब्बे का टिकट लेकर ट्रेन की प्रतीक्षा में बैठ गयी। ट्रेन समय से पांच मिनट की देरी से प्लेटफार्म पर पहुंची सामान्य डिब्बा बिल्कुल भर उठा उसमें पांव रखने की भी जगह नहीं अब मेरा क्या हो, आना तो था ही जो होगा देखा जायेगा सोचकर मैं रिजर्वेशन के डिब्बे में चढ़ गयी । पता था कि मैं बहुत ग़लत कर रही हूं लेकिन मरता न क्या करता वाली स्थिति थी मेरे साथ।
डिब्बे में चढ़कर मैं सीट पर बैठने बिल्कुल नहीं गयी थी वहीं दरवाजे के पास जमीन पर बैठ गयी। सबकी निगाहें मेरी तरफ थी कि अकेली लड़की जमीन पर बैठकर जा रही है मुझे ये बात आश्चर्यचकित कर रही थी कि निगाहें सिर्फ देखकर ओफ!कहने के लिए ही थी, मदद के लिए शून्य प्रतापगढ़ निकला,अमेठी निकला,जायस निकला ऐसे एक के बाद एक स्टेशन निकलते रहे मैं फर्श पर बैठी लोगों के नजरों को आकर्षण का केंद्र बनी फर्श पर बैठी रही। लखनऊ स्टेशन निकलने के बाद एक टी.टी. महोदय आये और टिकट निकालो , टिकट निकालो की ऊंची दहाड़ लगाई। मैंने डरते डरते अपना टिकट दिया। टी. टी. महोदय की आवाज और तेज हुई- तुम्हें पता है कि ये रिजर्वेशन का डिब्बा है तुम्हारा टिकट सामान्य डिब्बे का है। जी सर मुझे मालूम है लेकिन मैं मजबूर थी पहले से टिकट मिली नहीं और ये शरीर भी धोखा देता रहा इसलिए रिजर्वेशन का टिकट नहीं करवा पायी । सामान्य डिब्बे में चढ़ने की हिम्मत नहीं हुई इसलिए यहां आ गयी ——।
अच्छा ठीक है किनारे बैठी रहो कहते हुए टी.टी. महोदय चले गये। मैं उन्हें ढेरों दुवाएं देती रही और कहती रही कि आज भी दुनिया में ऐसे भले लोग हैं जो थोड़ी सी इंसानियत गलत होने के बावजूद दिखा ही देते हैं। लेकिन ट्रेन जैसे ही अपनी पूरी स्पीड में हुई ही थी कि उन टी. महोदय के साथ सुरक्षा को खूब व्यवस्थित करने वाले पुलिस साहब आये और कहा कहां जाना है मैडम ? उनको भी अपनी सारी समस्या बताई। अच्छा मैडम सीट चाहिए आपको तो बताओ—-? सर मिल जाती तो बहुत ही अच्छा होता।
साहब जी – खर्चा लगेगा बताओ! मैंने -जी सर दे दूंगी। कितना खर्चा देना होगा ? साहब जी -दो सौ रुपए देना होगा। मैंने – दे दूंगी सर। साहब जी -जाओ रिजर्वेशन के पहले डिब्बे में तिरसठ नम्बर सीट खाली है उस पर बैठो हम आ रहे हैं। जी सर कहकर मैं चलने लगी। तभी साहब जी अरे! मैडम खर्चा तो दे दो। जी सर!मैने उन्हे दो सौ रुपए निकालकर दे दिया और कहा सर इसकी कोई रसीद। साहब जी – अरे मैडम ! एक तो आप पैसे कम दे रही हैं ऊपर से रसीद भी चाहिए। मैंने कहा तो जितने पैसे होते हैं उतने बता दो दे दूंगी ।
साहब जी -चलो मैडम कोई नहीं पूंछने आयेगा आराम से बैठो। मैं सीट पर बैठ तो गयी लेकिन मेरे दिमाग में अनेकों सवाल थे कि टी. टी. महोदय का काम कब से साहब जी ने सम्भालने लगे। दूसरा सवाल और तेज हिलोरें मार रहा था कि मौसम को बदलने में फिर भी समय लगता है लेकिन टी.टी.महोदय को तो मौसम के बराबर भी समय नहीं लगा। फिर भी मैं दुवाएं दे रही थी और साहब जी,टी.टी. महोदय सिर नीचा किये दुवाएं बटोर रहे होंगे। वाह रे इंसान शाबाश! रत्ना भदौरिया