सम्पूर्णानंद मिश्र की कुछ कविताएँ | Sampurnanand Mishra Poems in Hindi

सम्पूर्णानंद मिश्र की कुछ कविताएँ | Sampurnanand Mishra Poems in Hindi

डॉ0 सम्पूर्णानन्द मिश्र की कविताओं को पढ़कर ऐसे भाव मन में जीवित हो उठते हैं जैसे पूर्व कालीन कवि धूमिल और नागार्जुन की रचनाओं को पढ़ रहे हैं जीवन स्वयं एक दुर्बोध प्रश्न है जिसका उत्तर मानव जीवनपर्यन्त खोजता रहता है और यदि पाता भी है तो व्यथाओं से सने हुये काठिन्य जगत की माया की पूर्ण गठरी को जिसको खोलते ही कपट ,छल,प्रपंच की दुर्बोधता का अनुभव होता है। डॉ0 मिश्र की रचना -प्रश्न में जयशंकर प्रसाद की कामायनी की वह पँक्ति स्मृत हो उठती जिसमें कवि कहता है – कौन तुम संसृति जलनिधि तीर तरंगों से फेंकी मणि एक,कर रहे निर्जन का चुपचाप प्रभा की धारा से अभिषेक* । इस प्रकार समय की काव्यात्मक धारा को लेखनी में आत्मसात करते हुये श्री मिश्र मन और हृदय दोनों को अपनी अमूल्य कृतियों से अभिसिंचित कर देते हैं। उच्चकोटि की भावाभिव्यक्ति है इनके सृजन में ,ऐसे मूर्धन्य कवि की लेखनी को अभिवादन।

— डॉ0 दया शंकर पाण्डेय

प्रश्न ,मानवतावादी दृष्टिकोण के प्रणेता एवं आधुनिक साहित्य जगत में सुनाम धन्य रचनाकार डॉक्टर संपूर्णानंद जी द्वारा रचित भावपूर्ण सम सामयिक रचना है । आज के संदर्भ में जिस तरह से व्यक्ति प्रश्न खड़ा कर स्वयं समस्या का जन्मदाता बन रहा है उस पर कठोर कटाक्ष करती हुई रचना समाज को नई दिशा देने में समर्थ एवं प्रभावी होगी । प्रश्न सार्थक हो व साथ ही साथ मानवता का पोषक भी हो , कुछ प्रश्नों का समाधान वक्त पर छोड़ देना चाहिए वक्त ही ऐसे प्रश्नों का सही उत्तर है जैसे भाव अत्यंत प्रभावी है ।यह रचना अत्यंत प्रशंसनीय है इसके लिए डॉक्टर मिश्र को साधुवाद एवं हार्दिक बधाई ।

सुधीर कुमार पाठक, कोलकाता

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प्रश्न

पूछना चाहिए प्रश्न
हरेक को
क्योंकि बिना उत्तर के
नहीं सुलझ सकता
जीवन- जगत की समस्याएं
शंका और अविश्वास
जन्म लेता है
लेकिन निरंतर प्रश्न करने से।
प्रश्न जहां कई बार
अज्ञानता के अंधेरे को चीरकर
हमारे हृदय में उम्मीदों का दीप जलाता है
वहीं निरर्थक प्रश्न
हमें दिग्भ्रमित कर देता है
विश्वास की बुनियाद पर ही तो
आत्मीय संबंधों की
भव्य इमारत खड़ी होती है
इसलिए बचना चाहिए
भ्रामक एवं अनर्गल प्रश्नों से
उत्तर सबको चाहिए
किसी भी आवश्यक प्रश्न का
चाहे वह किसी भी वर्ग का हो
लेकिन संदेह और भ्रामक प्रश्न हमारे जीवन में
न केवल सेंध लगाता है
बल्कि सामाजिक संबंधों की हत्या भी कर देता है
जितना ज्यादा प्रश्न
उतनी ही समस्याएं जीवन में
इसलिए वक्त
बहुत सारे प्रश्नों का
स्थायी एवं सटीक उत्तर है
प्रतीक्षा करनी चाहिए
एक उचित वक्त की
वक्त से बड़ा न कोई प्रश्न है
और न उससे बड़ा कोई उत्तर


काम और क्रोध, उच्च कोटि के रचनाकार डॉक्टर संपूर्णानंद जी द्वारा रचित सशक्त काव्यात्मक शैली में सजी सुंदर रचना है। काम जहां व्यक्ति के पतन का कारण तो वही क्रोध तमाम प्रकार के विकारों को जन्म देने वाला जिससे मनुष्य का अपने ही नजर में गिर जाना जैसे भाव को मनमोहक शब्दों का चयन करके अपने भाव व्यक्त किए हैं वह अद्भुत है मन को संयमित करके व साथ ही साथ सद्गुरु रूपी वैद्य के सानिध्य में इस पर नियंत्रण पाकर व्यक्ति विकारों से रहित होकर आनंद एवं शांति की प्राप्ति कर सकता है ।आध्यात्मिकता से ओतप्रोत रचना के लिए डॉ मिश्र को साधुवाद एवं हार्दिक बधाई

सुधीर कुमार पाठक, कोलकाता

२.काम और क्रोध

संपूरक हैं
काम और क्रोध
कह सकते हैं हम बल्कि
ये दोनों दास हैं माया के
माया इनकी स्वामिनी है
अनैतिक कार्य करवाती है
इनसे तरह- तरह के
खुलकर कहा जाय कि
ये दोनों ढींठ चोर हैं
सेंध लगाकर
शरीर में एक बार आ जांय
तो जल्दी नहीं जाते हैं
काम पतन के मज़बूत महल
का निर्माण करता है
स्थायी रूप से
उसमें रहने लगता है
नहीं कर सकते कल्पना कि
मनुष्य के विनाश और उपहास का सबसे बड़ा कारण है यह
नारद जैसे ब्रह्मज्ञानी का भी मानमर्दन कर दिया
मर्कट तक बना दिया
जितेन्द्रियता रूपी चांद
पर ग्रहण लगा दिया
कहीं का नहीं छोड़ा
तो सामान्य मनुष्य
की क्या बात है
दूसरा चोर भी शक्तिशाली है
वह बुद्धि और
विवेक दोनों का क्षय करता है
और साथी बना लेता है
नाना प्रकार के विकार रूपी रोग को
एवं ईर्ष्या का
प्रशस्त पथ निर्मित कर देता है
मनुष्य नियंत्रण न करे
स्वयं पर तो
यह उन्हें अर्श से फर्श
पर पहुंचा देता है
सत्संगति रूपी औषधि ही इन चोरों को भगाने का सबसे कारगर और अचूक इलाज़ है

 


३.मर रहा है

मर रहा है आदमी
रोज़- रोज़
कोई थोड़ा मर रहा है
कोई ज़्यादा
कोई आशा में
कोई निराशा में
कोई पेट सुलाने में
कोई स्वप्न उड़ाने में
कोई फ़िक्र में
कोई उम्मीदों के रीतेपन में
कोई महत्त्वाकांक्षाओं की
पतंग उड़ाने में
तो कोई परकटे परिंदों सा
मर रहा है हर कोई यहाँ
सयानी बिटिया भी डराती है
घुप्प रात मुंँह चिढ़ाती है
रात भर आदमी मरता है
दिन में ज़िंदा-सा दिखता है
शहर में अब कोलाहल है
महानगरों के गर्भ में
हलाहल है
भोलू परेशान है
शहर जाने से डरता है
वह जानता है
महानगर की फ़िज़ा को पहचानता है
यहाँ भी मर रहा है
वहाँ भी मरना है
बीवी गुलाबो
और छुटकी को
ज़िंदा रखने के लिए
जीने से सौ बार
मरना अच्छा है


शहर की ओर

रक्तिम आंखें
प्यासा ख़ून का
महानगर से सीधे
गांव – पथ पर
पंजें लहू पिए हुए
रौंदते हुए
अनेक मासूमों की
अंकुरित आशाओं को
भागो-भागो
चिल्लाते हुए
गिरते हुए
भहराते हुए
नन्हें- नन्हें बच्चे
जिनके नहीं टूटे हैं
दांत अभी दूध के
छिप जाते हैं
आंचल में मां के
सबसे अधिक
महफूज़ जगह समझकर
और
आता है भेड़िया
ख़ूनी पंजों से
झपट्टा मारकर
छीन ले जाता है
चांद के टुकड़ों को
क्योंकि आर्थिक मंदी में
नहीं बढ़ाना चाहते हैं
अपने पांव मज़दूर
शहर की ओर
क्योंकि
संज्ञाशून्य हो चुके
हौसलों की
धमनियों में फ़िर से
दौड़ने लगा है ख़ून
नहीं चाहते हैं कि
कोई आदिम भेड़िया
गिरा दे गर्भ
जो उनकी आंखों में
निश्चिंत पल रहे हों

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सम्पूर्णानंद मिश्र

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