सऺदेशा बादलों से | सीताराम चौहान पथिक

सऺदेशा बादलों से

मौन मन की पीड़ा को ,
शब्द मिल गये ।
फड़फड़ाते पऺछी को ,
पऺख मिल गये ।
लावा सुलग रहा था ,
ज्वालामुखी में जो ।
जून आते-आते ,
नदियों से बह गए ।
जो अनकही व्यथा थी,
ॵसू में कह गए।

ऐसा उठा बवंडर ,
पाषाण हिल गये ।
स्मृतियों के घाव सहसा,
स्मृतियों से छिल गये ।
मरहम कहां से लाएं ,
घायल के घाव भर दे।
स्मृतियों का ताज खऺडित
सीमेंट वह, जो भर दे ।

सहसा घिरे हैं बादल ,
उस ओर बरसे होंगे ।
ॵसू भरे ये बादल ,
घिर- घिर के बरसे होंगे ।

रुक जाओ तनिक बादल,
सन्देश देना – – – कहना ।
होगा मिलन गगन में ,
सजी पालकी में रहना ।

जीवित हूं बिन तुम्हारे ,
समझाऊं किस तरह से ।
जल बिन हो जैसे मछली ,
तड़पा हूं इस तरह से ।

मैंने तुम्हें रचा है ,
नव- रऺग चित्र तुम हो।
कविता की आत्मा हो ,
मृदु कल्पना में तुम हो ।

मैं शाहजहां नहीं हूं ,
बनवाऊऺ ताज दिलबर ।
साहित्य- ताज अर्पित ,
स्वीकारो मेरे दिलबर ।

यह ताज साक्षी है ,
अपने पुनर्मिलन का ।
मिलते रहेंगे इस में ,
यह साक्षी मिलन का ।।

एस आर चौहान पथिक
एस आर चौहान पथिक


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