तब और अब / सीताराम चौहान पथिक
तब और अब
कहां गया वो वक्त सुनहरा,
कहां गए हमजोली प्यारे ।
दादी नानी से रोज़ कहानी ,
गुल्ली डंडा सड़क किनारे ।
चूल्हे पर भोजन बनता था,
मां के हाथों में जादू था ।
ढिबरी प्रकाश में पढ़ते थे ,
सब भाई बहन, बस जादू था।
कुऺऔऺ का मटमैला पानी ,
पीकर भी तऺदरुस्त थे सब ।
काला गुड़ डला नमक खाकर
नीरोग और तऺदरुस्त थे सब ।
धूल धूसरित था बचपन ,
मां झाड़-पोऺछ कर नहलाती।
ॳगुलि से ॵखोऺ में काजल ,
बुरी नजर – डिठौना लगवाती
बुजुर्ग मास्टर जी दिख जाते ,
नुक्कड़ में हम छिप जाते थे।
मां बाप से शिकायत कर दी तो ,
तारे दिन में दिख जाते थे ।
बदला वक्त नीतियां बदलीं ,
पाश्चात्य संस्कृति ने रऺग दिखाया ।
परिवार विघटन मर्यादाएं भऺग
अपराधों का साया मऺडराया ।
इससे तो पहले अच्छा था ,
लोगों में निष्ठा प्रेम तो था ।
आपस में मिलकर रहते थे,
अभाव सही , दुर्भाव न था ।
कल- पुर्जों के युग में हम ,
साधन- सम्पन्न, पर रोगग्रस्त।
उद्योग बढ़े – – दूषित पर्यावरण
सामाजिक जीवन तनावग्रस्त
आओ , बचपन को स्मरण करें ,
लौटा लेऺ अपना स्वर्ण काल ।
क्या लौट सकेऺगे बीते दिन ॽ
बचपन के पल मनहर विशाल।।
क्या लौटेंगे वे मधुरिम पल ,
गऺगा समान पावन थे हम ।
झरने बहते थे स्नेह – भरे ,
इक डुबकी पथिक लगा लें हम ।।


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