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stri poem -स्त्री / वेदिका श्रीवास्तव

स्त्री


स्त्री जब तक त्यागी है,तभी तक सबकी प्यारी है!
अधिकार ,धरम इसका ना पुछो कितना इसने छोड़ा है ,
इसके हर शब्दों को समझो ,अपनो के ये मारी है !
स्त्री जब तक त्यागी है,तभी तक सबकी प्यारी है!

छीन लिया पुरूषों ने इसकी, जब गरिमा तो ये जागी ,
खुद बन गयी वस्तु ये फिर भी, जीना है मजबूरी इसकी ,
सम्मान की खातिर ये अपना भी सम्मान लूटाने वाली है !
स्त्री जब तक त्यागी है,तभी तक सबकी प्यारी है!

हृदय वेदना ना कह पाती ,बयां भी करना पाप है कुल का ,
जीती जाती बस ये यूँ ही ,स्वपन भला ये देखे क्यों ,
शक्ति मिली अपार मगर अबला ही सम्बोधित की जाती है !
स्त्री जब तक त्यागी है,तभी तक सबकी प्यारी है!

लाख बने कानून में नियम ,लाख संसोधन हो जाये ,
कल भी स्त्री रोती थी ,आज भी स्त्री लूटी जाये ,
मीरा कभी तो ,राधा बनकर प्रेम अकेले करती जाती है !
स्त्री जब तक त्यागी है,तभी तक सबकी प्यारी है!

हल्की सी मुस्कान की खातिर लड़ती रहती जीवन भर ,
एक ख़ुशी इसकी जो होती ,रहती गडाये दुनिया नजर ,
बड़ा ही निर्मम त्याग है इसका बदले में ताने पाती है !
स्त्री जब तक त्यागी है,तभी तक सबकी प्यारी है!

मोल चुकाना नहीं है संभव ,स्त्री खुद व्यापारी खुशियों की ,
अभिलाषा की नहीं है शय ये ,मान की है निसंदेह अधिकारी ,
देखें कब तक स्त्री यूँ ही ‘लेखों’ में ही पूजी जाती है !
स्त्री जब तक त्यागी है,तभी तक सबकी प्यारी है!

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वेदिका श्रीवास्तव

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