तुमने प्रियवर समझा होता | हरिश्चन्द्र त्रिपाठी’हरीश’

इन अधरों की प्यास कभी,
तुमने प्रियवर समझा होता।
मृदुल तुम्हारी अलकों में,
मेरा हाथ महकता होता।टेक।

मन का भॅवरा खो जाता,
बलखाती तेरी ऑखों में।
कदम भटकते ही रहते,
नित निर्जन सूनी राहों में।
सॅझवाती का मधुरिम ऑचल,
मुझसे विलग कभी ना होता।
इन आधरों की प्यास कभी,
तुमने प्रियवर समझा होता।1।

लहरा कर ऑचल तेरा,
अवगुण्ठित मुझको करता।
नीलाम्बर के रजनीकर को,
मैं गुमसुम देखा करता।
धक-धक करते उर-उरोज के,
मधु स्नेहिल स्पन्दन में होता।
इन अधरों की प्यास कभी,
तुमने प्रियवर समझा होता।2।

तुमने ही तो चाहा था,
इन बॉहों का बन्धन हो।
अधर-नयन सब खोये हों,
सॉस महकती चन्दन हो।
सुधि की छॉव तुम्हारी पाकर,
कदम-कदम ना भटका होता।
इन अधरों की प्यास कभी,
तुमने प्रियवर समझा होता।3।

यदि भूल-भटक तुम आ जाओ,
मन की व्यथा-कथा सब कह दूॅ।
मिल जायें तो मधुवन महके,
कलिका-मुख का चुंबन कर लूॅ।
ऋतु ने जो सन्देश दिया था,
मन मयूर सा बहॅका होता।
इन अधरों की प्यास कभी,
तुमने प्रियवर समझा होता।4।

हरिश्चन्द्र त्रिपाठी’हरीश;
रायबरेली (उप्र) 229010

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