वसुधैव कुटुंबकम् / हूबनाथ

वसुधैव कुटुंबकम् / हूबनाथ

हमारी बस्तियाँ
भले पक्की हो गई हैं

घरों में बन गए
शौचालय
तुम्हारे घरों की तरह

हमारे कपड़े
तुम्हारी तरह साफ़
सुथरे हो गए

हमें भी मिलने लगी
दो वक़्त की रोटी
भरपेट

हमारी बेटियाँ तक
तुम्हारी बेटियों के साथ
पढ़ने लगी हैं

हमारी पीढ़ियाँ
तुम्हारी मर्जी के बगैर
ख़ुद को गढ़ने लगी हैं

हममें से कुछ हो गए
अफ़सर बाबू प्रोफ़ेसर

जीने लगे
बिलकुल वैसे
तुम जीते हो जैसे

पर एक बात तो है

कि इस रूप में भी
तुम्हें
हम बिलकुल पसंद नहीं

तब भी पसंद नहीं थे
जब जीते थे
पशुओं से भी बदतर
गाँव के दक्खिनी सिवान पर

तो फिर
तुम्हीं बताओ
मालिक!

तुम्हारा
वसुधैव कुटुंबकम्

कब तक
हमारी बस्तियों के
हाशिए पर
अटका रहेगा

जैसे झरबेरी की
काँटेदार झाड़ियों में
अटके रहते हैं
छटपटाकर
मरे हुए परिंदे!

-हूबनाथ

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