आदमी | सम्पूर्णानंद मिश्र

आदमी | सम्पूर्णानंद मिश्र

आदमी आज बेचारा है
परिस्थितियों का मारा है
महंगाई से तंग है
सिस्टम से मोहभंग है
स्वयं से जंग है
अब जिंदगी ‌में न‌ ही
कोई रंग है
न अपने अब संग है
रोज़ छला जा रहा है
उत्साह ढला जा रहा है
अपना ही कह रहा है
दुःख स्वयं सह रहा है
न ही मस्ती में रह रहा है
नौकरी में पीसा जा रहा है
काम में अनावश्यक घीसा
जा रहा है
मित्र सब छूट रहे हैं ‌
अपने में ही ‌घूट रहे‌ हैं ‌
परिवार निरंतर टूट रहें हैं ‌
आदमी बेचारा है
परिस्थितियों का ‌मारा है

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