बदनसीबी | संपूर्णानंद मिश्र
बदनसीबी
बदनसीबी जब आती है
अपना ही मुंह बिराती है
बदनसीबी की मारी
उस बेटी की
आंखें जब खुली
तब गंदी
बस्तियां स्वागत में
खड़ी थी उसके
एक गहन अंधेरे में
बदनसीब बच्ची
भविष्य का असफल
उजाला ढूंढ़ रही थी
कागज़ की किताब की जगह
रोटी रोटी चिल्ला रही थी
भविष्य में उम्मीदों का
फूल
खिलता हुआ
दूर-दूर तक
नहीं नज़र आ रहा था
फटे हुए वस्त्रों की तरह
बचपन भी उसका न जाने
कब का फट गया था
इससे बेसुध
वह
बदनसीबी का झबला पहने
सहायता के लिए
फुटपाथ पर
हर आने जाने वालों की
आंखों में झांक रही थी
लेकिन
सर्वत्र निराशा थी
एक ऐसी बेटी
को पिता ने
जन्म पर उसके
भुखमरी और विवशता का
नायाब तोहफ़ा
कोमल हाथों में उसकी जिद़
के बिना ही दे दिया
इक्कीसवीं सदी की
वह बदनसीब बेटी
उसे लिए
कुज्झटिकाओं से आच्छादित
सर्द में
अपना भविष्य संवारने
फुटपाथ पर
धीरे-धीरे चल पड़ी !
संपूर्णानंद मिश्र
शिवपुर वाराणसी
7458994874