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पुस्तक समीक्षा साक्षी है समय/हूबनाथ, प्राध्यापक

पुस्तक समीक्षा साक्षी है समय/हूबनाथ, प्राध्यापक

साक्षी है समय

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पुस्तक समीक्षा


कविता पीड़ा, यातना, ताप, शाप से सिर्फ़ राहत ही नहीं होने देती, सोए हुए ज़मीर को, विवेक को, आक्रोश को झिंझोड़ कर जगाने और कल्मष को जलाने का काम भी बखूबी करती है। कविता सिर्फ़ नाज़ुक फूल ही नहीं, धारदार हथियार भी होती है। नेह में डूबी प्रेयसी ही नहीं, कड़ी फटकार लगाने वाली गुरुतुल्य पिता भी होती है। लिंगबोध से परे पौरुष से भरी कभी आंधी सी सनसनाती, बिजली सी कड़कड़ाती, हिमपात सी थरथराती परम शक्ति होती है कविता। ऐसी कविता की अघोर साधना के लिए कवि को भी मसान जगाना पड़ता है। अस्थि, कंकाल, कपाल, राख के ढेर से, चिता की अग्नि की लपलपाती लपट की आंच सहनी पड़ती है। कविता चौकीदार की तरह दिनदहाड़े जागते रहो, की तरह गुहार लगाती है। आपकी मदहोश नींद में खलल पड़ता हो तो पड़े, आपकी सुविधा-भरी ज़िन्दगी में सेंध लगती है तो लगे, आपकी चैन हराम होती है तो हो, कविता को कोई फ़र्क नहीं पड़ता ।और ऐसे कवि को फ़र्क नहीं पड़ता कि उसे तथाकथित कवियों के जुलूस में शामिल किया जाता है कि नहीं, कवि होने का गौरव प्रदान किया जाता है या नहीं, शब्दों के बेहया बाज़ार में दुकान खोलने दिया जाता है कि नहीं। वह तो कबीर की तरह घर फूंक कर निकला है। उसने मसीहा का दायित्व वहन किया है कि अपने समय के नंगे सत्य को शब्दों की चादर ज़रूर ओढ़ाएगा। आप कितना ही कान बंद किए रहें, वह मानवता के गीत ज़रूर गाएगा। कितना ही गहरा धंसा हो सूरज का पहिया, जांगर भर ज़ोर ज़रूर लगाएगा।

सम्पूर्णानन्द जी ऐसे ही कवि हैं। साहित्य होता होगा सुंदर किंतु फ़िलहाल शिव और सत्य की इज्ज़त बचाने का वक्त है। सत्ता जब मदमस्त हो जाए, राजनीति विवेकहीन हो जाए और समाज निर्लज्ज बन जाए तो एक साहित्य ही बचता है जिससे भविष्य की उम्मीद की जा सकती है बशर्तें वह शक्ति की दलाली और शासन का नाई, बारी, भाट बनने से बच सके। विगत तीन- चार महीने से हमारा समय तपती रेत पर नंगा पड़ा छटपटा रहा है। उसकी करुण कराह इन कविताओं में साफ़ सुनाई पड़ती है। तालाबंदी के शिकार असहाय मजदूर हों या आम जनमानस, सबकी पीड़ा, सबका त्रास, सबकी मूक वेदना सम्पूर्णानन्द जी की इन कविताओं में बेलाग प्रकट हुई है। सच को सच की तरह कहने की क्षमता का स्रोत होता है मां पिता, गुरु के प्रति ऐकांतिक निष्ठा और समर्पण में। वह निष्ठा भी इस संग्रह में मुखरित हुई है। कवि कहाने की होड़ में सिद्धांतों, आदर्शों, मूल्यों को ताक पर रखकर ईमान की बोली लगाने और सत्ता की जूठन चाटने के लिए झगड़ने वाले तथाकथित साहित्यकारों की भीड़ में यह आवाज़ भले नक्कारखाने में तूती लगे पर ऐसी कविताएं अपने समय की साक्षी होती हैं और यही इतिहास रचती हैं भले इतिहास में उनका नाम दर्ज़ न हो तो भी। एक प्रखर ओजस्वी और सार्थक काव्य संग्रह कराहती संवेदनाएं के लिए कवि सम्पूर्णानन्द जी का हार्दिक अभिनन्दन और अशेष मंगलकामनाएं!

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हूबनाथ, प्राध्यापक
मुंबई विश्वविद्यालय


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