चकराए हैं | मित्रता – सम्पूर्णानन्द मिश्र
चकराए हैं | मित्रता – सम्पूर्णानन्द मिश्र
चकराए हैं
ईश्वर ने
मनुष्य का निर्माण
सिर्फ़ दो रंगों से किया
श्याम और गौर वर्ण
ज़रूरत पड़ने पर
एकाक रंग और भी लिया
पहुंचते ही धरा पर
मनुष्य ने कई और रंग
चढ़ा लिया ऊपर अपने
कौन सा रंग ईश्वर का है
कौन सा मनुष्य का है
इसका पार्थक्य
सिर के बाल गिनने जैसा है
भेद-भाव जातिवाद के
वैविध्य रंगों की पोथी लिए
जैसे- जैसे वह
इस कायनात में सभ्य
और सुसंस्कृत हुआ
तैसे- तैसे उसका जंगलीपन
और भी हरा होता गया
ईश्वर भी मनुष्य के
इस रंग पर चकराए हैं
और उसकी इस अल्हड़ता
पर मंद-मंद मुस्कुराए हैं
मित्रता
बहुत कठिन है
परिभाषा में बांधना
मित्रता को
दम तोड़ देती है
परिभाषा की चौखट पर पहुंचते- पहुंचते
यह निर्बंध है
मुक्ति का द्वार है
मित्र के दु:ख का हलाहल पीकर
जो अपने हिस्से के सुख का पीयूष पिला दे
वही मित्रता के रथ को
निरंतर ताउम्र आगे बढ़ा सकता है
विपत्ति में
मित्रता की सच्ची परख होती है
सुख में तो बहुतेरे
मित्र आकाशीय
यात्रा की उड़ान भरते हैं
दिखाते हैं सब्ज़बाग
स्वप्निल दुनिया की सैर कराते हैं
लेकिन जो दुर्दिन में
आंसू को भाप बनाकर मेघ
में मिला दे
वही सच्चा मित्र होता है
और ऐसी मित्रता ही
तवारीख़ में स्वर्णाक्षरों में लिख जाती हैं
सुदामा और कृष्ण
कर्ण और दुर्योधन
परिचायक हैं इस बात के
ज़िंदगी की रूमाल में
गठियायी जा सकती है
ऐसी मित्रता की मिसाल ही
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