कौन हैं | बंद है बात |  छत की मुंडेर – सम्पूर्णानन्द मिश्र

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कौन हैं ?

कौन हैं ये लोग ?
जो सिर झुकाए खड़े हैं
रोज आते हैं और
रोज चले जाते हैं
जो सिर्फ़ देख सकते हैं
न सुन सकते हैं
और न बोल सकते हैं
क्या ये सचमुच गूंगे
और बहरे हैं
या
भाषिक रूप से
पिछड़े हैं
क्यों नहीं बताया
गया इन्हें
कि तुम अब स्वतंत्र हो
पूरी तरह से निर्बंध हो
हिला सकते हो
तुम भी अपने ओठ
भावाभिव्यक्ति का
लाइसेंस तुम्हारे भी पास है
मिल गया है अधिकार
तुम्हें भी
स्वतंत्रता की कमीज़
पहनने का
नहीं आज तुम
सच- सच बता दो
आखिर बात क्या है
आज तुम नहीं बता पाए!
अपनी स्थिति ठीक- ठीक
नहीं समझा पाए
तो छीन लेंगे ये तुमसे
तुम्हारी भाषा
और जीने का अधिकार दोनों


बंद है बात

कई वर्षों से
बंद है बात
धरती और आकाश की
दोनों तने हैं
खंज़र दोनों के
ख़ून से सने हैं
नहीं झुकना चाहता है
मुट्ठी भर कोई भी
स्वीकार नहीं है
अपनी लघुता किसी को
जबकि दोनों नहाते हैं
अपने- अपने प्रकाश में
अंधेरा भी पीते हैं
अपने ही हिस्से का
फिर बात क्या है
प्रयास किया है
समझने का जानने का
करनी पड़ी बड़ी मशक्कत
तब मैं समझ गया
कि दोनों ने चुभा ली थी
अपने हृदय में
अहं की एक बड़ी सी कील


 छत की मुंडेर

बहुत दिनों से
मेरे छत की मुंडेर पर
कोई कौआ नहीं आया
वह जब आता था
कुछ न कुछ
सुखद समाचार दे जाता था
इधर मैं तरस गया
अब मुझे अपने कान
की व्यर्थता समझ में आने लगी
अकारण स्थान घेरे हुए था
सुख के रस का स्रोत तो इसी द्वार से ही तो आता था
अब यह द्वार भी बंद पड़ा है
मैंने इस बात की
जांच- पड़ताल की
खूब शोध किया
प्रश्नावली तैयार की
बुद्धिमान और विवेकी
लोगों से संपर्क किया
नतीजा कुछ नहीं निकला
मैंने अपने गांव के
रामखेलावन दादा
से यही प्रश्न किया
उन्होंने जो बताया
उससे झनझना
उठा मेरा माथा
कहा बेटा !
यह प्रजाति
अब लुप्त हो गई है
निर्माण करना
इसका ईश्वर ने बंद‌ कर दिया
क्योंकि
इस धरा के लिए
अनुपयोगी हो चला था
मोबाइल ने सीधे- सीधे
लात मार दिया पेट पर इसके
बस श्राद्ध -पक्ष
तक इसका विस्तार था
बाकी दिन
कांव- कांव करता था
यहां की बात वहां करता था
ईश्वर को भी लगने लगा
अकारण धन और समय
इस पर खर्च करता हूं
विश्व की जनसंख्या
ऐसे ही बहुत है
लाकडाउन‌ है
न्यायालय हो
या मुख्यालय हो
दिल्ली हो या मुंबई
आज के मनुष्य से
अच्छा कौन
कांव- कांव कर सकता है !

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सम्पूर्णानन्द मिश्र
प्रयागराज फूलपुर
7458994874

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