चुप्पियां | सम्पूर्णानन्द मिश्र | Chuppiyan
चुप्पियां | सम्पूर्णानन्द मिश्र | Chuppiyan
चुप्पियां
टूटनी चाहिए
चुप्पियां वक़्त पर
ताकि जल न जाय
झूठ की आंच पर सत्य की रोटी
मानाकि
चुकानी पड़ती है
एक बहुत कीमत
चुप्पियों को बोलने की
लेकिन तोड़ने से इस व्रत को
मुक्त किया जा सकता है
झूठ के वेण्टीलेटर से
उन कंधों को जो
न जाने कितने अरसे से ढो रहे हैं
गुनाहों का भारी बोझ
जिसका ठप्पा उनके माथे पर
चुप्पियों ने ही लगा दिया था।
इतिहास के दर्पण में
अतीत का चेहरा
हमारी विद्रूपताओं को दिखाता है
हमें अनगिनत अक्षम्य
घटनाओं की पुनरावृत्ति
से बचाता है
अगर हम झांकें
पूर्वकालीन घटनाओं
की उन आंखों में
तो हमें हमारा सही
उत्तर मिल जायेगा कि
टूटी होतीं चुप्पियां उस दिन
तो न हुआ होता
महाभारत का वह अनर्गल युद्ध
और न खरोंची गई होती
एक स्त्री की आत्मा
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