कहां पर छिपी हो | Kaha par chipi ho
कहां पर छिपी हो | Kaha par chipi ho
सूफीवाद पर आधारित कविता, जहां नारी को ब्रह्म तथा पुरुष को साधक माना गया है।
कहां पर छिपी हो बताओ प्रिये ॽ
मेरे मन में है जलते विरह के दिये।
केश श्यामल तेरे- हों ज्यों बादल घिरे,
नीले आकाश में रात करते ।
मैं पथिक तेरी मंजिल भटकता रहा ,
और वे घात- प्रतिघात करते ।
तू ही बतला क्या अपराध मैंने किये ॽ
मेरे मन में है जलते विरह के दिये।
मेरे आह्वान पर भी तू क्यों मौन है ,
जबकि जीवन की इच्छाओं से मुक्त हूं।
लालसा है तो केवल वह तेरी ही है ,
प्रेम की स्वच्छ सरिता से मैं युक्त हूं।
फिर बात तो सही मौन है किस लिए ॽ
मेरे मन में है जलते विरह के दिये।
नयन पथरा गये बाट जोह कर तेरी ,
पर न मालूम था इतनी निष्ठुर है तू ।
मैं तो समझा था प्रतिमा तुझे प्रेम की ,
किन्तु अफसोस, कातिल की सूरत है तू ।
मूंद गये क्यों तब मेरे मन के हिये ॽ
मेरे मन में है जलते विरह के दिये ।
तेरी मुस्कान के भेद को मैं प्रिये ,
अपने जीवन में अब तक समझ न सका ,
तू है बे-वफा, लोग कहते थे तब ,
तेरे अपमान को कर सहन न सका ।
उनसे सम्बन्ध- विच्छेद मैंने किए ।
मेरे मन में है जलते विरह के दिये ।
कब तलक ऐसे तड़पाएगी तू मुझे ,
विरह की धधकती ज्वालाओं में ।
स्मरण कर, मैं भी हूं रूप उस अग्नि का ,
जो धधकती तेरी तीव्र ज्वालाओं में ।
किन्तु संघर्ष हो प्रेम से किस लिए ॽ
मेरे मन में है जलते विरह के दिये ।
अब भी अंत: करण में किरण शेष है ,
होगा अपना मिलन व्योम-पथ पर कभी ।
आएगी करने स्वागत तू सज-धज के जब ,
होंगे प्रस्थान हम स्वर्ण- रथ पर तभी ।
लीन- सागर में हम तुम रहेंगे प्रिये ।
मेरे मन में है जलते विरह के दिये ।
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