Gaanv ki khushboo-गांव की खुशबू / डॉ. सम्पूर्णानंद मिश्र

 Gaanv ki khushboo

गांव की खुशबू


शहर की भीड़-भाड़
कोलाहल से दूर
एक सड़क जाती है मेरे गांव को
एक अलग सी महक
नासिका में घुल जाती है
और मानवता की
सारी- संवेदनाएं
गांव की इन्हीं बस्तियों में
तो जीवित दिखाई पड़ती हैं
तब बड़ी राहत मिलती है।
शहर की बजबजाती
 सड़ांध  ज़हरीली हवा से देह की
रिहाई कोई मायने नहीं रखती है
 अगर कुछ रखती है मायने
  सही अर्थों में
 तो वह है आत्मा की रिहाई
  जिस पर निरंतर
 हथौड़ा चलाया जा रहा था कुसंस्कारों का
 नागर सभ्यता के  क्रूर- हाथों से
पड़ोस के रामखेलावन
के नवबधू की सिंदूरी मांग
   ऊषा की लालिमा
  सदृश दिखती है
 कड़हे में पके गुड़ के
जरेठे की सोंधी-सोंधी खुशबू
     पूरे गांव को
सुवासित कर देती थी
क्या वह दिन कोई लौटा पायेगा
मेरा सुवासित गांव
राजधानी से छुड़ा पायेगा ?

gaanv-ki-khushboo
डॉ0 सम्पूर्णानंद मिश्र
प्रयागराज फूलपुर
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