पलायन | दर्पण | Hindi kavita | अभिमन्यु पाल आलोचक

पलायन | दर्पण | Hindi kavita | अभिमन्यु पाल आलोचक

1. पलायन

मैं छोंड़ आया वो शांत गाँव
मुझको शहरों का शोर पसंद है।

स्मृति के चित्र चित पर छपकर
पीड़ित मन भावुक करते हैं,
वो ग्राम्य प्रेम वो जनक प्रेम
सुख त्याग सुखास में जलते हैं,
पतवार बिना बह रही नाव,
मैं छोंड़ आया वो शांत गाँव
मुझको शहरों का शोर पसंद है।

बचपन की याद अल्हड़़ से शौक
वो खौफ खौफ बनना बेखौफ,
सहमी नजरें पर बात बड़ी
झूठे किस्सों का जमना रौब,
पल पल का मेरा खाना भाव,
मैं छोंड़ आया वो शांत गाँव
मुझको शहरों का शोर पसंद है।

टायर की दौड़़ छुप्पा छुप्पी
वो नाना खेल धक्का मुक्की,
जो यदा कदा होती गलती
दिखती सहमित मन की चुप्पी,
लगते बचाव के नवीन दांव,
मैं छोंड़ आया वो शांत गाँव
मुझको शहरों का शोर पसंद है।

पीपल की छांव कौवे की कांव
अज की मैं मैं से था लगाव,
पोखर समीप टीले पे बैठ
सुनते कलहों की चांव चांव,
है याद मुझे प्रत्येक ठांव,
मैं छोंड़ आया वो शांत गाँव
मुझको शहरों का शोर पसंद है।

नन्ही नन्ही आँखों में आस
बिलखा अपूर्ण चित था हतास,
निज और गैर समझाये समझा
फिर किया पलायन का प्रयास,
जीवन का वो था अगला पडा़व,
मैं छोंड़ आया वो शांत गाँव
मुझको शहरों का शोर पसंद है।

घर की मुर्गी को दाल समझ
खाता हूँ पाव मैं खड़े पाँव,
जो हक से खर्चे लेता था
लेता हूँ देखकर हाव भाव,
भौं भौं बन गयी है म्यांव म्यांव,
मैं छोंड़ आया वो शांत गाँव
मुझको शहरों का शोर पसंद है।

जब प्यार हुआ तो दर्द मिला
सोंचा शायद है आगाज़ यही,
जब सह न सका तो भाग पड़ा
सुन सकूँ दिल की आवाज़ नहीं,
इसलिये ये पों पों शोर पसंद है,
मैं छोंड़ आया वो शांत गाँव
मुझको शहरों का शोर पसंद है। –अभिमन्यु पाल आलोचक

2. दर्पण

समाये कई राज़ सीने में मेरे,
मुझे जानने को लगे बहुतेरे,
कोई आंशिक ही मुझे जान पाया,
अधिकांश ने यूं ही सर को खपाया,
कोई कहता मेरे है पीछे ज़माना,
कोई ज़ख्मी मुझपे सुनाता तराना,
अबोध कोई देख हँसता लपकता,
कोई जंतु बैरी समझकर भड़कता,
कोई सुंदरी है मेरी देती दुहाई,
कोई श्याम वर्णा है करती बुराई,
समझता है सीधा दिखाती हूँ उल्टा,
बने काम ना तो तू कहता है कुलटा,
प्रकृति का अनोखा पदार्थ हूँ मैं,
यदि कृष्ण तुम हो तो पार्थ हूँ मैं,
अंदर से बाहर से हूँ एक जैसी,
जैसे हो तुम मैं दिखाती हूँ वैसी,
तू रोता मैं रोती तेरी मुस्कान पे मुस्कुराती,
दोहरी प्रकृति मुझको बिलकुल न भाती,
चाहे उपयोग जैसा करो मैं हूँ अर्पण,
मैं सच की हूँ देवी मेरा नाम दर्पण। – अभिमन्यु पाल आलोचक

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