hum sabake hain sabhee hamaare/ हम सबके हैं सभी हमारे
hum sabake hain sabhee hamaare : डॉ. रसिक किशोर सिंह ‘नीरज’ प्रस्तुत गीत संग्रह ‘हम सबके हैं सभी हमारे’ के माध्यम से अपनी काव्य-साधना के भाव सुमन राष्ट्रभाषा हिंदी के श्री चरणों में अर्पित कर रहे हैं । इस संकलन की गीतात्मक अभिव्यक्तियों में भाव की प्रधानता है । भाव सहज उद्भूति हैं , जिसमें विचार और चिंतन दूध में शर्करा की भाँति एकरूप होकर घुल मिल जाते हैं ।
१.बसन्त
(hum sabake hain sabhee hamaare)
बस बस बसंत बस आ बसंत हे ऋतु बसंत ऋतुराज ।
मन भावन बसंत पावन बसंत प्यारे बसंत ऋतुराज ।।
हे ऋतुओँ में राज सहज ही
पावन मन बस जाती
तेरे आने से नव यौवन की
खुशियों हैं छा जातीं
वृक्ष धरा के मुरझाये हैं
खोये दिखते जब उद्गार
क्या भोजन क्या सेवा उनको
ना दे सकते हैं हम प्यार
साथ खुशी सब लेकर आती करने करुण क्रान्ति का अंत ।
बस बस बसंत बस आ बसंत हे ऋतु बसंत ऋतुराज ।।
उन की प्रीति कहाँ
सचमुच तुमने जो सिखलाई
मन मलीन देखा सबको तो
दे दी अपनी तरुणाई
सदाचाह सुख हरित शान्त की
शाश्वत तेरी जानी जाती
ऋतु सुंदरता समृद्धि स्वरूपा
मन भावन हो जाती
जग ने सीखा सुख में रहकर औरों का करना सुखान्त ।
बस बस बसंत बस आ बसंत हे ऋतु बसंत ऋतुराज ।।
आलस्य शयन औ निद्रा में
जब खोये समय अधिक हैं दिखते
तरु पल्लव तेरे वियोग में
बने दिगम्बर निज-दुख कहते
कर देती उनको नवचेतन
भर देती रग-रग नव उल्लास
सोये खोये मुरझाये भी
खिल कर पाते प्रेम हास
शिव की प्यारी यह ऋतु प्रसूनमय दिग्दिगंत ।
बस -बस बसंत बस आ बसंत हे ऋतु बसंत ऋतुराज ।।
गर्मी के दिन निष्ठुर होते
शीतकाल के रूप बिखेरे
हाथ पैर में जकड़न होती
निर्धन निर्बल हैं सब रोते
ऋतुयें विविध कष्ट देतीं पर
बसंत अंत सबका कर देती
दसों दिशायें सुरभित करके
नव उल्लास हृदय भर देती
‘नीरज’ शीत ग्रीष्म के उभय पक्ष में छा जातीं खुशियाँ अनन्त ।
बस -बस बसंत बस आ बसंत हे ऋतु बसंत ऋतुराज ।।
२. प्रीति से सम्बन्ध
(hum sabake hain sabhee hamaare)
स्नेह का निर्झर कहाँ है
सिंधु सा जीवन कहाँ है
आज मानव-मूल्य खोते जा रहे हर द्धार ।
प्रीति के सम्बन्ध सारे, हैं मुझे स्वीकार ।।
मूक प्रहरी सजग दस्तक
पढ़ रहा हूँ समय पुस्तक
सत्य स्वर प्रस्फुटित होते
झूठ का व्यापार व्यापक
बन्धनों से मुक्ति पाने, मैं चला सुख हार ।
प्रीति के सम्बन्ध सारे, हैं मुझे स्वीकार ।।
काँपती आहत मनुजता
ओंठ पर ठहरी विवशता
घात हर विश्वास में है
दूर जीवन गत सरलता
किन्तु अब तक सत्य का, लेता रहा आधार ।
प्रीति के सम्बन्ध सारे, हैं मुझे स्वीकार ।।
तोड़कर प्रतिबन्ध रेखा
विश्व का आधार देखा
बाहुओं का शेष बल है
सत्य झूठा विजित छल है
दूर होता जा रहा अब, भावना संसार ।
प्रीति के सम्बन्ध सारे, हैं मुझे स्वीकार ।।
३. डर लगता है
इंसान को इंसान से डर लगता है
हम अकेले ही रहें मन कहता है ।
न दिखता आदमी कहीं पर हँसता
न निभाता कोई अन्तर का रिश्ता
जो भी दुख पीड़ा हो मन सहता है
हम अकेले ही रहें मन कहता है ।
वह निर्माणों का प्रयास करते हैं
सुख दुखों का हिसाब करते हैं
भूलता जो समय,हाथ मलता है
हम अकेले ही रहें मन कहता है ।
मत बिछाओ अधर्म की चादर
मत देना अन्यायी को आदर
इंसान को इंसान आज छलता है
हम अकेले ही रहें मन कहता है ।
संयोग या वियोग रूप सपना है
किसको बुलाऊँ पास कहूँ अपना है
सदा भाग्य लेख हमें मिलता है
हम अकेले ही रहें मन कहता है ।
४. होली
होली स्मृतियाँ लेकर, रंग अबीर फाग लाई ।
मानव जीवन में खुशियाँ, घड़ी मिलन की आई ।।
भारत के इतिहास पटल में
अंकित हिरण्यकश्यप की कहानी
धरती नभ अंतरिक्ष में दिखती
रंगमयी प्रीति की निशानी
नव उल्लास उमंगो से गूँजी, मृदंग शहनाई।
होली स्मृतियाँ लेकर, रंग अबीर फाग लाई ।।
था सत्य भक्ति द्रोही अभिमानी
प्रह्लाद को हानि न कर पाया
जय होती न्यायी सत्यव्रती की
पवन स्पर्श गीत अग्नि ने गाया
बदलते परिवेश में आनंद की, अनुभूति पायी ।
होली स्मृतियाँ लेकर, रंग अबीर फाग लाई ।।
होली की अनुगूँजें मोहक
सुखदायी मादक वातावरण
प्रेम एकता से बंधा राष्ट्र
बदले नवल रूप आवरण
‘नीरज’ पवन झूम धरती की, चूनर लहराई ।
होली स्मृतियाँ लेकर, रंग अबीर फाग लाई ।।
५. विश्व मंदिर में
विश्व मंदिर में नवल, शुभ दीप जलना चाहिए ।
खो गया सिद्धान्त सबका
आचरण है भिन्न अपना
सत्य परिभाषा में सीमित
यथार्थ होता झूठ सपना
राष्ट्र को सुख शान्ति का, सन्देश मिलना चाहिए ।
विश्व मंदिर में नवल, शुभ दीप जलना चाहिए ।।
है कहाँ सुख चैन वह
जो न आ पाता यहाँ
इक्कीसवीं सदी का दिन
रैन सा कटता यहाँ
बन हिमालय सा हमें, फिर पिघलना चाहिए ।
विश्व मंदिर में नवल, शुभ दीप जलना चाहिए ।।
हो सके उत्थान कैसे
प्रगति की नव कामना है
प्रेम खो जाये नहीं
हो न मन दुर्भावना है
‘नीरज’ निकल जल कीच से, नव कमल खिलना चाहिए ।
विश्व मंदिर में नवल, शुभ दीप जलना चाहिए ।।
६.मत दो मुझे विराम
मत दो मुझे विराम यूँ ही अविराम पथिक चलने दो।
यह जग प्रेम रूप बन्धन है
ममता का यह वन नन्दन है
यहाँ अपरिमित स्वर सुगंध हैं
मानवता के वेद मंत्र हैं।
मन रमता हर मन में अपना, द्वेष भाव तजने दो ।
मत दो मुझे विराम यूँ ही अविराम पथिक चलने दो । ।
चित्त एक बस मग में तुम हो
उल्टे मग का मैं राही हूँ
चित्त चित्र की तुम प्रवृत्ति हो
गति विहीन चंचल साधक हूँ।
लगने दो दावाग्नि अग्नि, सन्देश प्रकृति को मत दो।
मत दो मुझे विराम यूँ ही अविराम पथिक चलने दो। ।
नहीं किया उपदेश श्रवण पर
पर उपदेश कुशल बहुतेरों से
चक्षु मूँदने में भी मैंने
दिव्य दृष्टि पाया औरों से।
सच्चाई उत्तर में ले लो, उलझे प्रश्नों में रहने दो।
मत दो मुझे विराम यूँ ही अविराम पथिक चलने दो। ।
प्रगति पंथ पर बढ़ते जाना
ही जीवन साकार जानिये
कायरता बस थक कर रुकना
मरने का आधार मानिए।
स्नेहिल भाव अपार खुशी, आगार मेरा लूटने दो।
मत दो मुझे विराम यूँ ही अविराम पथिक चलने दो । ।
पथ कंटकमय है दुर्गम है
किन्तु नियति है चलने जाना
बाधाओं को अंक भेटकर
मैंने सीखा है मुस्काना।
सीमित आयामों का यों, विस्तार मुझे करने दो ।
मत दो मुझे विराम यूँ ही अविराम पथिक चलने दो । ।
संकल्पो की साधक मति है
कौन जान पाएगा गति को
अवरोधों से भरी प्रगति जो
मेरे अथ या मेरी इति को ।
पथ की तृष्णा भरी नियति में, छलने दो बढ़ने दो।
मत दो मुझे विराम यूँ ही अविराम पथिक चलने दो । ।
मुझे नहीं पाथेय चाहिए
आघातों का मैं अभ्यासी
मैं पद चिन्ह छोड़ चलता हूँ
मेरी लगन अथक अविनाशी ।
पीड़ा में संभास सभी कुछ, हॅंस-हॅंस कर सहने दो।
मत दो मुझे विराम यूँ ही अविराम पथिक चलने दो । ।
कितने प्रहर गये दिन आये
मेरी निष्ठा को झुठलाये
चाहे बहुत विरोधी तब यों
फिर मिल कंटक पुष्प खिलाये । ।
जल अन्तस कीचड़ में मेरे, नीरज को खिलने दो
मत दो मुझे विराम यूँ ही अविराम पथिक चलने दो । ।
७.एकनिष्ठ हो सदा पपीहा
छाई सुखद बहार
पपिहा पी -पी करत पुकार।
श्याम छटा को देख निरन्तर
मन अकुलाता रहता प्रतिपल
छू-छू करके सहम- सहम कर
पुरवा कर जाती है विह्वल
सहन नहीं होता एकाकी
देख अनोखी सरस बहार।
साँझ सिन्दूरी श्याम आवरण
में सजधज लेती अँगड़ाई
दादुर मोर पपीहे के स्वर
बजते हैं जैसे शहनाई
नवल वधू सौन्दर्य प्रकृति सी
निशा नाचती है मनहार।
पी – पी करता जन्म जन्म से
पूर्ण समर्पित हो तन मन से
एकनिष्ठ हो सदा पपीहा
वीत राग रहता जीवन से
स्वर को धरती से अम्बर तक
फैलती है मन्द बयार।
८.गति अविराम चाहिए
जीवन दर्शन का मुझको आयाम चाहिए
कृतियों के नवरूप चाहिए नाम चाहिए।
वायु सतत् बहती रहती है
जन- जीवन में गति भरती है
कली नित्य खिलती झरती है
निर्मित हो मिटती बनती है।
जीवन क्रम में अविनाशी छविधाम चाहिए
जीवन दर्शन का मुझको आयाम चाहिए ।
संयम दृढ़ उद्देश्य सबल हों
कुटिल न हों शुचि सौम्य सरल हों
मन गंगा जल सा निर्मल हो
प्राणों का दृढ़तर सम्बल हो ।
सुन्दर-सत्य-पंथ, शिव-गति अविराम चाहिए
जीवन दर्शन का मुझको आयाम चाहिए ।
९.महान हैं सभी
ज्ञात हूँ अज्ञात हूँ जिनको जहाँ मिलूँ
महान हैं सभी सबको नमन करूँ।
”मैं ” बसा मन में, सभी के जानते नहीं
माना कि दिव्य दृष्टि है , पहचानते नहीं
प्रेम से हो बात, या सान्निध्य हो सही
द्वेष से हों दूर तो , भटकाव ही नहीं
एक आत्मा अनेक, जीव क्या कहूँ
महान हैं सभी, सबको नमन करुँ।
सूर्य चन्द्र पवन गगन, वसुन्धरा एक है
मानव हैं भाँति-भाँति , किन्तु ब्रह्म एक है
रंग रूप भेद बहुत, रुधिर किन्तु एक है
देह हैं अनेक वेश, प्राण किन्तु एक है
धन्य जन्म हो अगर, विचार यह गहूँ
महान हैं सभी, सबको नमन करूँ।
१०.गुरु ज्ञान से
होता गुरु ज्ञान से, नर महान है
लक्ष्यहीन व्यक्ति निरा, पशु समान है ।
सिद्धियों की खोज में
हैं अहंकारी योग अब
झूठी सफलताओं में
भ्रमित जग के लोग सब
एकलव्य ने इतिहास रच
शिष्टता गरिमा निभाई
अर्पित अँगूठा किया, महिमा महान है ।
लक्ष्यहीन व्यक्ति निरा, पशु समान है ।
कार्य के प्रारम्भ मेँ गुरु
ध्यान करना चाहिए
उपलब्धियों के लिए दृढ़
संकल्प रखना चाहिए
शिष्य बालक जीव ‘नीरज’
ब्रह्म है गुरु विज्ञ ज्ञानी
दिव्य दर्शन हेतु, प्रेरणा उत्थान है।
लक्ष्यहीन व्यक्ति निरा, पशु समान है ।।
११.नाम लेकर जी रहा हूँ
हो गया आशिक़ मैं तेरा नाम लेकर जी रहा हूँ।
इश्क़ के मन्दिर के बाहर मैं खड़ा था
चाहने वालों का अच्छा काफ़िला था
दिख रही तस्वीर में तक़दीर मुझको
अब तलक गुमनाम था जो नाम रोशन कर रहा हूँ।
हो गया आशिक़ मैं तेरा नाम लेकर जी रहा हूँ। ।
मदमस्त है ये इश्क़ में सारा शहर
सौन्दर्य तेरा ढा रहा उसमें कहर
बुझ दिलों को रोशनी तुमने ही दी
उपहार पाया यह कि अब हर हँसी पर रो रहा हूँ ।
हो गया आशिक़ मैं तेरा नाम लेकर जी रहा हूँ । ।
हुई वादे की तेरी हर बात झूठी
है कल्पना संकल्प करती आज रूठी
ख्वाहिशें सब खाक़ में अब मिल गई हैं
शेष अब सन्तोष अमृत मैं पथिक बन पी रहा हूँ।
हो गया आशिक़ मैं तेरा नाम लेकर जी रहा हूँ । ।
प्यार की है प्यास कितनी अब यहाँ
बरसात में प्यासा पपीहा है यहाँ
सारा समन्दर दे न पाया, तृप्ति मुझको
स्वाति के उस बूँद की, ‘नीरज’ प्रतीक्षा कर रहा हूँ ।
हो गया आशिक़ मैं तेरा नाम लेकर जी रहा हूँ । ।
१२. न दोस्ती निभाई
यह अनुभव रहा ज़िन्दगी का सदा ही
समय पर किसी ने न दोस्ती निभाई।
हमेशा ही मैंने दिया साथ जिसको
घड़ी आपदा में तलाशा है उसको
नहीं दे सका मेरा प्रतिकार मुझको
दिया उम्रभर साथ जिसको उसी ने
कभी भूलकर भी न पीड़ा बँटाई ।
समय पर किसी ने न दोस्ती निभाई। ।
समय पर सभी को सहारा दिया है
रहे डूबते जो किनारा दिया है
बिलखते रहे तो दुलारा है हमने
बिखरने लगे तो सँवारा है हमने
न अवसर पर कोई कभी साथ देता
किसी से न ‘नीरज’ ने हमदर्दी पाई।
समय पर किसी ने न दोस्ती निभाई । ।
१३ रोया कहाँ -कहाँ
आया गमों का दौर भटका यहाँ -वहाँ
पूछा नहीं किसी ने रोया कहाँ-कहाँ।
जान पाया मैं नहीं उनकी तमन्ना आज तक
दोस्त या दुश्मन नहीं पहचान पाया आज तक
दोस्त और दुश्मन पहचानूँ कहाँ -कहाँ
आया ग़मों का दौर भटका यहाँ -वहाँ।
घाव थे जो ताज़े उनमें पीर भर गई
हर प्यार की तमन्ना नाक़ाम कर गई
प्यार पीर का किया, समन्वय कहाँ-कहाँ
आया ग़मों का दौर भटका यहाँ -वहाँ।
प्यार में ही कितने स्तब्ध रह गये
राज जानने में कुछ विक्षिप्त हो गये
हँसने में मुझे कैद किया है जहाँ -तहाँ
आया ग़मों का दौर भटका यहाँ -वहाँ।
इंसान को कुचल कर ऊपर वे चढ़ गये
इंसानियत जो पूजे वे इंसान गढ़ गये
‘नीरज’ है रज कणों में अनुभूतियाँ यहाँ
आया ग़मों का दौर भटका यहाँ -वहाँ।
१४.संघर्षो का जीवन
संघर्षो का जीवन उपवन , सौरभ से भर जाना है
काँटों की डाली पर मुझको, मधुमय सुमन खिलाना है ।
कितना भी पथ अवरोधित हो
कितनी भरी विषमताएं हों
नहीं पंथ पर रुकना झुकना
कैसी कठिन समस्यायें हों ।
हर अवरोध पार कर मुझको, लक्ष्य बिन्दु तक जाना है
संघर्षो का जीवन उपवन , सौरभ से भर जाना है ।
घोर तमिश्रा की रजनी में
हो न प्रकाश की रेखाकिंचित
उसमें भी दिन की उजियारी
भरने की क्षमता कर अर्जित ।
अंधियारे के शीश मुकुट , आभा का रुख जाना है
संघर्षो का जीवन उपवन, सौरभ से भर जाना है ।
पाषाणों में प्राण फूँकना
हर अप्राप्त को संभव करना
है अभिमान यहीं साँसों का
प्राप्त गरल अमृतमय करना
आत्मशक्ति आशा में मुझको , अर्न्तज्योति जलाना है
संघर्षो का जीवन उपवन, सौरभ से भर जाना है ।
विरह दीप बनकर तुम्हारा
जला हूँ विरह दीप बनकर तुम्हारा।
आशा निशा में जला हूँ निरंतर
तम को हटाकर किया ज्योति सुन्दर
खुद को जलाकर उजाला किया है
गिरकर स्वयं को संभाला किया है
निराश्रित हुआ किन्तु सम्बल हमारा।
जला हूँ विरह दीप बनकर तुम्हारा।
अंधेरी अमा में जला दीप बनकर
न लौ बुझ सकी आँधियों में निरन्तर
जहाँ जिसने चाहा जलाया मुझे है
मिला तम ही तम बस उजाला तुझे है
किया है धरा से गगन तक उजाला ।
जला हूँ विरह दीप बनकर तुम्हारा।
यही सत्य पाया जगत एक सपना
पराया न कोई नहीं कोई अपना
यह संसार क्या चार दिन का है मेला
निकट आ रही आयु की सांध्य बेला
ना कोई है साथी ना कोई सहारा।
जला हूँ विरह दीप बनकर तुम्हारा।
युगो से सतत यों ही जलता रहा हूँ
प्रभा सम तिमिर में भी पलता रहा हूँ
नहीं खत्म होगी जलन की कहानी
न कम होगी जलने की उर्जा पुरानी
कई जन्म बीते थका हूँ न हारा।
जला हूँ विरह दीप बनकर तुम्हारा।
सब ने मुँह फेर लिया
जीवन की त्रासदी निकट आयी,
सबने मुँह फेर लिया।
वर्षों बीते जलते -जलते
कब तक छलनाओं में पलते
झूठे रिश्तों के वस्त्रों को
मन के धागे कब तक सीते
धन वैभव वाले अपनों ने ही,
अपनों से मुँह फेर लिया
जीवन की त्रासदी निकट आयी,
सबने मुँह फेर लिया।
अपना ही हमदर्द समझ कर
जिन पर है सर्वस्व लुटाया
किन्तु एक क्षण भी न उन्होंने
मेरा दर्द कभी सहलाया
कृत्रिम उपहारों की आभा,
का भी रूप सहेज लिया
जीवन की त्रासदी निकट आई,
सब ने मुँह फेर लिया।
मन से परे बचन की गरिमा
इनकी कौन बखाने महिमा
भाषा और कर्म के अन्तर
की है कितनी विस्तृत सीमा
आदर्शों के नन्दन वन में,
लिपटे विषधर भी देख लिया
जीवन की त्रासदी निकट आयी,
सबने मुँह फेर लिया।
मिथ्या की इस नगरी में
क्या कह दूँ क्या खोया पाया
पाने की ही अभिलाषा ने
मुझको जीवन भर भरमाया
निर्माण नाश की गतिविधि ने,
‘नीरज’ परिवर्तन देख लिया
जीवन की त्रासदी निकट आयी,
सबने मुँह फेर लिया।
कपटपूर्ण जीवन जीने का
कपटपूर्ण जीवन जीने का,
किया कभी अभ्यास नहीं है।
जिसने भी आघात किया है,
उन सब का आभास नहीं है ।
अन्तर बाह्य और अन्तस् में
कहते कुछ हैं दिखता कुछ है
झूठे शब्द अधर पर आते
कृत्रिमता ही तो सब कुछ है ।
कोरे आश्वासन पर जिनके,
होता कुछ विश्वास नहीं है।
कपटपूर्ण जीवन जीने का,
किया कभी अभ्यास नहीं है।।
मिलन घड़ी तक ही नाटक है
और दूरियाँ पटाक्षेप हैं
जिज्ञासा आभास करातीं
हर प्रायश्चित आक्षेप हैं
ऐसा कोई प्रश्न न दो,
जिसमें कोई उल्लास नहीं है।
कपटपूर्ण जीवन जीने का,
किया कभी अभ्यास नहीं है।।
रैन दिवस की सहज निशाचरी
आती है पर ठहर न पाती
और पूर्णिमा कलापूर्ण कर
पक्षों में विभक्त हो जाती
पूर्ण कहें किसको अब ‘नीरज’
क्या उसका परिहास नहीं है ।
कपटपूर्ण जीवन जीने का
किया कभी अभ्यास नहीं है।।
पूरी बात नहीं कह पाये
पूरी बात नहीं कह पाये।
वह अपने हैं और यहाँ फिर
कहते हैं हम सभी तुम्हारे
नहीं सुनी आवाज किसी ने
जाने कितनी बार पुकारे
लौट गए आकर बिन बोले
तेरी सुस्मृतियों के साये।
अधरों की सहमी अकुलाहट
नयनों की संचित आशायें
मौन-मौन ही रही व्यक्त
कर सकी न मन की पूर्ण व्यथायें
गीतों में ही हम दोहराते
रहे भाव मन के अनगाये।
अम्बर ध्वनि को कौन पकड़कर
लाएगा जो भेज चुका हूँ
शब्द -शब्द कर क्षण प्रत्यर्पण
प्रति ध्वनि बीच सहेज चुका हूँ
पल-पल प्रतिक्षण उच्छवासों का
हम प्रतिदान नहीं दे पाए।
सैलानी बादल से यह मन
सैलानी बादल सा यह मन
उड़ता रहता है।
कभी क्षितिज के भाल चूमता
खेतों खलियानों में घिरता
नभ के ओर छोर तक
रह- रह फिरता रहता है।
किरणों के संग रास रचाता
पवन अंक में भर उड़ जाता
सागर के ऊपर छाया बन
खूब मचलता है ।
कभी किसी के हाथ ना आता
करता वह जो भी मन भाता
बूँद-बूँद कर धरती के
लिए पिघलता है।
जगत क्रीड़ा स्थली
खिल रही हर पंखुड़ी, हैं बंद कुछ आतुर कली ।
हर भ्रमर मधुपान हो
रससिक्त उपवन गान हो
तितलियों सँग विहग नव
सौन्दर्य जगत विधान हो
सृष्टि के व्यापार की, यह जगत क्रीड़ा स्थली।
खिल रही हर पंखुड़ी, हैं बंद कुछ आतुर कली ।।
प्रकृति की सौन्दर्यता में
है यहाँ नव जीव सारे
खेलते संसार में
कभी जीते कभी हारे
विश्व मेले में मिले, कितने सरल कितने छली।
खिल रही हर पंखुड़ी, हैं बंद कुछ आतुर कली ।।
जीत का पर्याय है
साधना के पुष्प खिलते
हार का इतिहास है
प्रयास मन से नहीं करते
हार कर, हरि समर्पित, ‘नीरज’ विधाता ही बली।
खिल रही हर पंखुड़ी, हैं बंद कुछ आतुर कली।।
दरिन्दन को दरि दे
ऐरी सिंह वाहिनी पधार फिर भारत में
दीन दलितों का दुख दैन्य दूर करि दे।
चण्ड मुण्ड सम दुष्ट जनन को मारि -मारि
महिषा विनाशिनी धरा को शुद्ध करि दे।
शौर्य उत्साह भर जन -जन जीवन में
संतन में भक्तन में भव्य भाव भरि दे।
‘नीरज’ विनत हो पुकार रहा आज तुझे
रौद्र रूप धरि के दरिन्दन को दरी दे।
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