कितनी बार टूटता है | सम्पूर्णानंद मिश्र
कितनी बार टूटता है | सम्पूर्णानंद मिश्र
बूढ़े
मां -बाप की रोशनी होती हैं
उनकी संतानें
पूरी ज़िंदगी
अपनी आंखों
की रोशनी बेचकर
संतानों की
ख़्वाहिशों के आंगन
में उनके सपनों का
जो पूर्ण चांद खिलाता है
वह पिता ही होता है
लेकिन
बुढ़ापे में
वही पिता
अकेलापन महसूसता है
संबंधियों की आंखों में
एक अदद रोशनी के लिए
न जाने कितनी बार घूमता है
लाचार
बूढ़ा बाप
बुढ़ापे की लाठी
न जाने कितनी बार
ढूंढ़ता है
अपनी आंखों के पत्थर पर
निराशा और
दु:ख के उग आयी अनचाही
घासों को
बची हुई उम्मीदों की
खुरपी से
न जाने कितनी बार
छिलता है
और
एक अदद रोशनी के लिए
अस्पताल में
दम तोड़ता है
यह यह उसके
जीवन की कर्म- गति है
या
उसका प्रारब्ध है
या
यह विधि का विधान है
उसे
ईश्वर
पर छोड़ता है!
सम्पूर्णानंद मिश्र
शिवपुर वाराणसी
7458994874