नगरवधू | सम्पूर्णानंद मिश्र
नगरवधू
आम्रपाली
तुम बहुत सुंदर थी
यही तुम्हारा कसूर था
इसलिए
तुम्हारे सौंदर्य का पान करने के लिए
वैशाली और मगध निरंतर लड़ते रहे
एक बार नहीं
सौ बार फाड़ी गई मर्यादा की चादर
पिता- पुत्र के द्वारा
प्रतिद्वंद्वी हो गए थे
तुम्हारे सौंदर्य की वर्षा में भींगने के लिए
तुम्हें हर हाल में पाना चाहते थे
तुम
समुद्र- मंथन की
वह अमृत थी
जिसका आचमन
देव और दानव
दोनों करना चाहते थे
घीसू और माधव
में भी प्रतिद्वंद्विता थी
लेकिन
वह पेट की आग बुझाने की
वासना की जलती आग में
सर्वप्रथम कूदने की नहीं
तुम्हारी सुंदरता
तुम्हारे लिए वरदान नहीं
अभिशाप हो गई
कि तुम किसी
एक की नहीं बन सकी
नतीज़न
तुम शिकार हो गई
लोगों के आक्रोश की
और
तुम्हें बनना पड़ा नगरवधू
लेकिन
पूर्व जन्म के
तुम्हारे पुण्य ने
नगरवधू से तुम्हें बौद्ध भिक्षुणी बना दिया
सम्पूर्णानंद मिश्र
शिवपुर वाराणसी
7458994874