विद्याधिप की प्रतिमूर्ति : डॉ संतलाल

विद्याधिप की प्रतिमूर्ति : डॉ संतलाल

गुरुदेव डॉ० संतलाल को सरलता, सज्जनता, विनम्रता, विद्वता की प्रतिमूर्ति कहूँ तो अतिश्योक्ति न होगी। उनके लिए ये शब्द भी कम हैं, क्या करूं ? वर्णमाला की पूरी डायरी खंगाल ली परन्तु कोई शब्द ही नहीं मिले। सारे शब्द उनकी सरलता विद्वता के सामने कम पड़ गये।
मैं उनके लेखन क्षेत्र को ज्यादा नहीं जानती, लेकिन जितना भी जानती हूँ, उतना लेखन सरल और सौम्य भाषा में है। उनकी लेखनी जब चलती है तो ग्रामीणों और उच्च पदस्थ महानुभावों के हृदयस्थल को छू लेती है। लेखन के साथ-साथ सभी क्षेत्रों में योग्य, अनुभवी संतलाल अद्भुत प्रतिभा के धनी हैं।

मैं, इंदिरा गांधी राजकीय महिला महाविद्यालय प्रगतिपुरम रायबरेली से स्नातक की पढ़ाई कर रही थी, उन दिनों बस नाम मात्र से जानती थी। हाँ, बस एक अध्यापक आते हैं, जो हिन्दी विषय गहनता के साथ पढ़ाते हैं। इतना जरूर सुना था कि बहुत अच्छा पढ़ाते हैं। पढ़ाने के साथ-साथ विषय से हटकर ऐसी अनेकों किताबों और समाज में घट रही घटनाओं, ज्वलन्त मुद्दों आदि के विषय में बताते जो देखने, सुनने, समझने वाले हर एक‌ व्यक्ति को नयी ऊर्जा के साथ परिश्रम करने का हौसला देता है। उन दिनों मेरा दुर्भाग्य रहा, मैंने हिन्दी विषय लिया ही नहीं था और संतलाल जी से पढ़ नहीं सकी। लेकिन कुछ वर्षों बाद मैं दिल्ली आ गयी और नौकरी करने लगी। एक दिन फेसबुक टटोलते-टटोलते मेरी नज़र ऐसी शख्सियत पर पड़ी, जो एक ऊर्जावान, साधारण, सरल, प्रतिभाशाली, विद्वान सभी क्षेत्रों में निपुण- अरे..! ये तो डॉ० संतलाल सर हैं, जो मेरे कालेज में हिन्दी पढ़ाते थे। मैंने बिना कुछ सोचे समझे फ्रेंड रिक्वेस्ट भेज दिया। लेकिन मन में बार-बार ये ख्याल आ रहा था कि वे इतने बड़े इतने विद्वान, जिनके सामने मैं तिनका मात्र भी नहीं। कहीं डांट पड़ गयी तो‌..। उन्होंने बड़ी सरलता से रिक्वेस्ट स्वीकार कर मैसेज किया।

रत्ना तुम कैसे जानती हो मुझे?और बताओ कोई काम। सर आप इंदिरा गांधी राजकीय महिला महाविद्यालय प्रगतिपुरम रायबरेली में पढ़ाते थे, वहीं पढ़ती थी मैं। अच्छा-अच्छा बहुत सुंदर। क्या करती हो आजकल ? कहाँ हो? तमाम व्यक्तिगत बातें हुई। मैंने उन्हें बताया कि मैं आड़ा-तिरछा लिखती हूँ। पहली बार मेरे लेखन पर इतना खुश होने वाले वो पहली सख्शियत। सर ने तुरंत कहा – भेजो देखता हूँ। मैंने अपना टूटा-फूटा लेख गुरुदेव को भेज दिया। सर ने उसे देखा, पढ़ा परखा और फोन करके त्रुटियाँ, कमियां अच्छाईयां बताया। अब जब भी मुझे लेखन में या पठन-पाठन में समस्या अथवा व्यक्तिगत जीवन में कुछ भी उतार चढ़ाव लगता है, तो मैं सबसे पहले संतलाल सर का फोन खटखटाती हूं। वे तुरंत समस्या का उचित समाधान करके उसका उसी समय निपटारा कर देते हैं। जितना वे नरम दिल हैं, उतना डांट भी लगाते हैं। कभी-कभी मुझे बहुत डांट पड़ती है, जब मैं लेखन में आनाकानी करती हूँ तो कबीरदास जी का दोहा याद आता है-

गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढि गढि काढैं खोट।
अंतर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट।।

सर की डांट में ऐसा जादू है कि डर के साथ -साथ लिखने का हौसला और बढ़ जाता है। लेकिन एक दिलचस्प बात ये है कि वे आज भी मेरी तारीफ मेरे सामने नहीं, दूसरों से इतनी करेंगे जिसका तिलमात्र भी मैं लेखन कार्य नहीं करती। मैं जानती हूँ कि यहां पर लेखन करने वाले सभी वरिष्ठ लेखक, नवोदित रचनाकार मुझसे गुस्सा हो सकते हैं, लेकिन सबसे ज्यादा प्रतिद्वन्दिता मैंने लेखन में देखी, जिसमें वरिष्ठ साहित्यकार अपनी कुर्सी उभरते हुए साहित्यकार के हाथों में देना ही नहीं चाहता और ग़लती से कहीं कोई उभरते हुए साहित्यकार के हाथों में कोई सम्मान पत्र चला गया तो पूरा सोशल मीडिया भर जायेगा उनके लेखों से। मैंने अपनी याद में संतलाल जी के अन्दर ये चीजें कभी नहीं देखी। उन्होंने कालेज में ही नहीं, कालेज के बाहर अनेकों साहित्यकारों, शोधकर्ताओं का हौसला बढ़ाया। उनकी ग़लती सुधारने के रास्ते बताये। वहां तक पहुंचाया और सम्मान पत्र मिलने पर सबसे ज्यादा खुशी जतायी।।

ये बातें केवल मैं हवा-हवाई में नहीं, सत्यता के साथ कह सकती हूँ, जिसकी गवाह मैं खुद रही हूँ। आप मेरी न मानें तो डॉ० संतलाल गुरु जी का व्यक्तित्व और कृतित्व को आधार मानकर उनके ऊपर भारत सरकार द्वारा जारी किए गए डाक विभाग के टिकट से अंदाजा लगा सकते हैं। भारत सरकार ने उनके ऊपर डाक विभाग का टिकट जारी किया। ये सिर्फ मेरे लिए नहीं, अपितु सम्पूर्ण जनपद के लिए अत्यन्त गर्व की बात है।

मैं तो अपने आपको सौभाग्यशाली महसूस करती हूँ कि मैं योग्यतम वरिष्ठ संतलाल सर की शिष्या हूँ। ऐसे गुरु के ऊपर लेखनी चलाना सूर्य को दीपक दिखाने के समान होगा। बहुत दिनों से सोच रही थी कि कुछ आड़ा तिरछा लिखूं, क्योंकि सर की एक सबसे बड़ी बात ये कि कभी भी आप उनके लिए दो शब्द बोलेंगे तो वे प्यारी सी मुस्कान और कम शब्दों के साथ “अरे ! ठीक है, ठीक है”। बस इसके शिवाय कुछ नहीं। वो फलदार वृक्ष के समान हैं, जिनमें ज्ञान, विविधता रूपी जितने फल लगते हैं, उत्तम ही वो नीचे झुकते हैं।

मैंने बहुत से लोगों को देखा और महसूस किया कि, थोड़ा सा तारीफ करो तो बस और ज्यादा सुनने की उत्सुकता में पूरी आत्मकथा बता डालेंगे। ये नहीं देखेंगे की सामने वाला कितना दिलचस्प है। वैसे जब भी अपनों पर कलम चलाने की बात आती है तो कलम ठस हो जाती । वैसे मेरी हो गयी। आज ठान कर बैठी कि शायद न्याय कर पाऊं लेकिन बहुत कुछ अनकहा ही रह गया। इतनी बड़ी शख्सियत के ऊपर कलम चलाना तिल मात्र जैसी लड़की का बूता कहां भला। शब्द कम पड़ गये, पन्ने कम पड़ गये, लेकिन सर की विद्वता की लम्बी लिस्ट अभी भी वैसी की वैसी है । मैं तो कहती हूं आपकी गुणगाथा कभी खत्म न हो। आप हमेशा स्वस्थ रहें, खुश रहें, सर मुस्कुराते रहें। हम जैसे ज्ञान से वंचित खाली दिमाग के मन में नयी ऊर्जा भरते रहें। बहुत कुछ सीखा बहुत कुछ सीखने की कोशिश सर आपसे। आप हम सबकी प्रेरणा स्रोत हैं, आप हम सबका हौसला है। मैं जानती हूं कि आपके बराबरी के तिल मात्र भी नहीं लिखा मैंने, लेकिन आप सुनते नहीं, इसलिए कलम के माध्यम से थोड़ा सा कहने की कोशिश की। बहुत कुछ अभी भी अधूरा —-।

आपकी शिष्या,
रत्ना सिंह का सादर प्रणाम।

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