poetry on manzil | मंजिल के पास पहुँचकर भी हारती रही मैं – कल्पना अवस्थी

 poetry on manzil

 

मंजिल के पास पहुँचकर भी हारती रही मैं


 

मंजिल के पास
पहुँचकर भी हारती
रही मैं

फिर भी
बिखरे सपनों को
संवारती रही मैं

लड़ती थी रात
के अँधेरे से

नहीं डरती
थी मेहनत के
थपेड़े से

जब सब
सोते थे तब
जागती थी मैं

मुश्किलों के डर
से कहाँ भागती
थी मैं

कुछ कर
गुजरने का हौसला
कभी टूटा नहीं

क्योंकि हौसला देने
वाले का साथ
कभी छूटा नहीं

बनाकर रेत पर
घर,खुद अपने
हाथों बिगाड़ती रही
मैं

मंजिल के पास
पहुँचकर भी हारती
रही मैं।

 

कुछ होश
नही था बस
याद अपना सपना
था

कैसे भी
करके सच उसे
करना था

ना खाने
का समय था
सोने का
था

कुछ अच्छा
हुआ था और
कुछ अच्छा होने
का था

उम्मीदों के गहरे
सागर में इक
उम्मीद

अपने लिए
तलाशती रही मैं

मंजिल के पास
पहुँचकर भी हारती
रही मैं

 

थक गई
हूँ पर उम्मीदें
अभी नहीं छूटी
हैं

दोष किसको
दूँ शायद तकदीर
ही मुझसे रूठी
है

पर हार
मान लेना भी
कायरता है

ऊपरवाला ही नया
विश्वास मन में
भरता है

वादा है
इस बार जीत
के दिखाऊँगी

जिन आँखों
में मेरे लिए
विश्वास है 

उस
विश्वास को बचाऊँगी

किसी का
भरोसा कल्पना के
लिए

उसके लक्ष्य
से भी बड़ा
है

जो उम्मीदों
का दामन थामे
मेरी 

कामयाबी के
इंतज़ार में खड़ा
है

उन उम्मीद
भरी आँखों में
ही निहारती रही
मैं

मंजिल के पास
पहुँचकर भी हारती
रही मैं।

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कल्पना अवस्थी
 
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