Baba kalpnesh ke geet-यह कैसी नादानी/बाबा कल्पनेश

Baba kalpnesh ke geet

      यह कैसी नादानी     


जल से भरी नदी पर प्यासी,खोज रही है पानी,

अपना घाट छोड़ कर दर-दर,यह कैसी नादानी।

कुछ दिन पहले मिली शिकायत, बच्चे  भूँखे-प्यासे,

जिसके घर में अन्न नहीं है,चूल्हा जले कहाँ से।

दो जवान बेटे हैं दोनो,खोटे सिक्के जैसै,

आँगन में खुशियों का नर्तन, बोलो संभव कैसे।

दोनो के करतल हैं छूँछे,एक न कौड़ी कानी।

जल से भरी नदी पर प्यासी, खोज रही है पानी।

संतलाल अधियारा अपना,लागत माँग रहा है,

ले जाएँ तब अपना हिस्सा, उसने यही कहा है।

गेहूं की आ गई बुवाई,खाद-बीज के पैसे,

सम्मुख ऊँची दिखे चढाई, चढ़ना होगा  कैसे।

छत के ऊपर खुल्ला नाचे,उपजी यह हैरानी,

जल से भरी नदी पर प्यासी, खोज रही है पानी।

जिसके तट पर मेले लगते,घाट उसी का छूँछा,

टोले में अब प्रश्न उछलते,सबने सबसे पूँछा।

खारे आँसूं खेत पी रहे,आगत की अगुआई,

घर में ठंडक का कब्जा है,मिलती कहाँ रजाई।

व्यसनी काम चोर के घर की,कहती कलम कहानी,

जल से भरी नदी पर प्यासी, खोज रही है पानी।


पंचचामर-वर्णिक छंद 
मुक्तक 
गण विन्यास-

जगण रगण जगण रगण लघु गुरु 

121 212 12, 121 212 12

जहाँ निरीहता दिखे,चलो उसे उखाड़ दें,

कभी लिखें-पढ़ें नहीं, निकार पृष्ठ फाड़ दें।

सजा रहे सदा स्वदेश,भारतीयता रहे,

पगे-पगे जगा रहे,सुबंधुवाद गाड़ दें।

सुलेखनी कहे यही,जहाँ रहें करें यही,

विभेदवाद देख लें, वहीं-वहीं भरें यही।

सुगाढ़ प्रीति रंग हो,न जंग से डरें कभी,

चलें गहें सुगम्यता,सुसौख्यता वरें यही।

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बाबा कल्पनेश

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