पुलिस पीर जाने नहिं कोई / अशोक कुमार गौतम

पुलिस पीर जाने नहिं कोई

‘पुलिस मित्र’ किसे कहा गया है 

भारत की संस्कृति विश्व की प्राचीन संस्कृतियों में एक है। संस्कृति का अर्थ है- उत्तम या सुधरी हुई स्थिति। त्रेता युग, द्वापर युग, मुगल काल, ब्रिटिश काल में शासक-सेनापति-सैनिक और कारागार रहे हैं, आज भी हैं। शासन और सुरक्षा व्यवस्था निरंतर चली आ रही है। मथुरा में भगवान श्री कृष्ण की जन्मस्थली (कारागार) सिद्ध करती है कि सेनापति सैनिक तब भी थे, बन्दीगृह की सुरक्षा अनेक सैनिकों के हाथों में थी। सैनिक या पुलिस अपने उच्चाधिकारियों और राजाओं/शासकों के आदेश का पालन करती है। इसके लिए कई बार सिपाहियों को अपने प्राण भी न्योछावर करने पड़ते हैं। तब हम चैन की नींद सोते हैं।

राज्यों और केंद्र सरकार के बीच सुरक्षा मुद्दे पर महत्वपूर्ण निर्णय हुआ, जिसके तहत राज्यों के अधीन पुलिस और केंद्र में जल, थल, वायु सेना को रखा गया है। इसमें महत्वपूर्ण जिम्मेदारी नागरिक पुलिस विभाग की होती है, क्योंकि यह लोग सीधा आम जनता से जुड़े रहते हैं। जिसे आज ‘पुलिस मित्र’ की संज्ञा दी गई है। वहीं वाह्य देशों से अपने देश की सुरक्षा और आंतरिक सुरक्षा के लिए केंद्रीय बल सदैव सतर्क रहता है।

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उत्तर प्रदेश पुलिस की स्थापना कब हुई ?

उत्तर प्रदेश पुलिस की स्थापना ब्रिटिश हुकूमत के दौरान पुलिस अधिनियम 1861 के तहत सन 1863 ईस्वी में हुई। जिसका मुख्यालय इलाहाबाद (प्रयागराज) है। उत्तर प्रदेश पुलिस भारत की ही नहीं, वरन विश्व की सबसे बड़ी पुलिस सेवा है। उत्तर प्रदेश पुलिस का आदर्श वाक्य है- परित्राणाम साधूनाम विनाशाय च दुष्कृताम् अर्थात ‘अच्छे का संरक्षण और बुरे का विनाश हो।‘ नागरिकों पर जब भी बड़ी या छोटी कोई भी समस्या यथा बीमारी, आग, हत्या, लड़ाई, बाढ़, सूखा आदि आता है तो सबसे पहले पुलिस को ही बुलाया जाता है। पुलिस सत्यनिष्ठा के साथ अपने कर्तव्यों का निर्वहन भी करती है। महिला पुलिस तो एक कदम आगे निकलकर अपने ड्यूटी के कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए पारिवारिक जिम्मेदारियों को बखूबी निभाती है, साथ ही अपनी ड्यूटी के लिए 24 घंटे सजग रहती है। लगभग दो से तीन प्रतिशत पुलिस वाले भ्रष्टाचार में लिप्त, शराबी होते हैं। परंतु कुछ लोगों के कारण पूरा महकमा बदनाम करना या एक ही तराजू में तौलना सर्वथा अनुचित है। ऐसा करने वालों पर भी कानूनी कार्यवाही होनी चाहिए।

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विचार करो- क्या यह सब पुलिस को अच्छा लगता है?

यदि कहीं एक्सीडेंट हो जाता और मांस बिखर जाता है तो आम इंसान उस मृत शरीर को देखकर ही गिर पड़ता है। हफ्ता दस दिन पुरानी सड़ी लाश कहीं बरामद होती है, तो आम जनता नाक-मुंह बंद करके दूर भागती है। तब पुलिस के जवान ही उस मृत शरीर को अपने हाँथों की अंजुलि में समेटकर शव विच्छेदन गृह ले जाते हैं। विचार करो- क्या यह सब पुलिस को अच्छा लगता है? उन्हें वर्दी की मर्यादा और अपने कर्तव्यों का निर्वहन सप्ताह के सातों दिन, 24 घंटे करना होता है। कभी-कभी तो वर्दी की कीमत भी चुकानी पड़ जाती है। होली, दिवाली, ईद, मुहर्रम, गुरु नानक जयंती, क्रिसमस आदि बड़े पर्व आते हैं, तब अन्य विभागों में सरकारी अवकाश घोषित हो जाता है। वहीं पुलिस विभाग की ड्यूटी और सतर्कता बढ़ा दी जाती है। तब सर्वधर्मी देशवासी खुशी-खुशी त्यौहार मनाते हैं।

पुलिस हृदय से सम्मान की हकदार है

वैश्विक महामारी करोना के कारण हजारों लोग असमय मृत्यु का शिकार हो गए हैं। ऐसी कठिन परिस्थिति में पुलिस के जवानों और मेडिकल स्टॉफ ने जान जोखिम में डालकर ड्यूटी निभाई, जिसके कारण काफी हद तक मृत्यु दर में कमी भी आई है। लॉकडाउन 2020 के दौरान कई पुलिसकर्मियों और अधिकारियों ने अपने जेब से मुसाफिरों को भोजन, पानी, कपड़े, यातायात का साधन और नकद मुद्रा भी दिया था, पुलिस हृदय से सम्मान की हकदार है। दूसरा पहलू यह भी देखने को मिला है कुछ पुलिस वालों का अमानवीय चेहरा लॉकडाउन में समय सामने आया, जिन्होंने वर्दी की हनक पर निर्दोषों को मारा पीटा और प्रताणित किया। ऐसे अपराध करने से बचना चाहिए। वास्तव में हम आकलन करें तो ऐसे लोगों की संख्या 1 या 2% ही हो सकती है। इस अमानवीय व्यवहार के लिए पूरा पुलिस विभाग को कटघरे में खड़ा करना कहाँ का न्याय है?

अपराधियों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है

अपराधियों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। ऊपर से उनके पास अत्याधुनिक हथियार, लग्जरी गाड़ियां, कंप्यूटर और साइबर अपराध मे माहिर दुर्दांत अपराधी भी हैं। यह सब पुलिस के लिए किसी कठिन चुनौती से कम नहीं होता है। इन अपराधों को रोकने के लिए पुलिस के पास पुरानी ब्रिटिश कालीन राइफल, पुरानी गाड़ियां, हटाकर अत्याधुनिक हथियार, हाईटेक और कैमरा लगी गाड़ियां उपलब्ध कराना चाहिए। समय-समय पर पुलिस वालों को प्रशिक्षण भी दिया जाना चाहिए। अधिकतर पुलिस विभाग से जुड़े अधिकारी और कर्मचारियों को भर्ती होते समय फायरिंग व हथियारों के रखरखाव आदि की ट्रेनिंग दी जाती है, उसके बाद सेवानिवृत्त होने तक एक भी फायरिंग का अवसर नहीं मिलता है। जिससे यह सब प्रशिक्षण शून्य के बराबर हो जाता है। सरकार को चाहिए कि भारतीय मिलिट्री का कुछ फार्मूला यथा परेड निशानेबाजी, फायरिंग, गाड़ियां चलाना, कंप्यूटर प्रशिक्षण, अपराध नियंत्रण प्रशिक्षण आदि नियमित रूप से महिला, पुरुष सिपाहियों और अधिकारियों को दिया जाना चाहिए, जिससे अपराध का ग्राफ अवश्य नीचे गिरेगा।

खादी का सर्वाधिक दखल खाकी पर ही होता है

पुलिस पीर जाने नहिं कोई / अशोक कुमार गौतम

सभी विभागों को स्वतंत्र एवं निष्पक्ष रूप से अपने उत्तरदायित्व का निर्वहन करना चाहिए। किंतु विडंबना ही कहा जा सकता है कि खादी का सर्वाधिक दखल खाकी पर ही होता है। जिससे चाह कर भी अधिकारी और कर्मचारी अपना कर्तव्य निष्ठापूर्वक नहीं कर पाते हैं। इसलिए अपराधियों के हौसले बुलंद हो जाते हैं। एक दिन यही अपराधी प्रवित्ति के लोग पुलिस के लिए चुनौती और नासूर बन जाते हैं। देश और प्रदेश की दशा दिशा तय करने की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी जनप्रतिनिधियों की होती है। “माननीय” विशेषण प्राप्त सदस्य नीति नियंता और पथ प्रदर्शक होते हैं, जिनके आदेशों का पालन प्रशासन करता है। जब खाकी और खादी में सकारात्मक तालमेल रहेगा तभी भारत सोने की चिड़िया कहलाएगा। धन्य है वह जवान जो हर मौसम में खुले आसमान के नीचे खड़े रहकर ड्यूटी करते हैं। हेलमेट ना पहनने, सीट बेल्ट न लगाने या गाड़ी में आवश्यक प्रपत्र न होने पर संवैधानिक प्रक्रिया के तहत दारोगा चालान काटना चाहता है। जिससे लोग भविष्य में ऐसी गलतियों से सावधान रहें और आगे सड़क दुर्घटना ना हो। कानून तोड़ने वाले वे लोग किसी न किसी नेता का नाम लेकर नौकरी से निकलवाने तक की धमकी देते हैं। तब लाचार और बेबस नजर आती है वर्दी। एक छोटा सा प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि कुछ जनप्रतिनिधि या किसी राजनीतिक दल के कुछ नेता अपराध रोकने में मदद कर रहे हैं या अपराध बढ़ाने में? उत्तर भी आपको आसानी से मिल जाएगा। जो नहीं मिलेगा वह है पुलिस प्रशासन को इज्जत। आज हम अपने देश को विश्व के शिखर पर देखना चाहते हैं। ऐसे में एक पल चिंतन करना आवश्यक है कि हम स्वयं में कितना साफ-सुथरी छवि वाला व्यक्तित्व अपना रहे हैं।


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अशोक कुमार गौतम
असि0 प्रोफेसर,
शिवा जी नगर (सरयू-भगवती कुंज)
रायबरेली
09415951459

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