पुष्पा श्रीवास्तव “शैली” के दोहे | प्रकृति हिंदीं गीत

पुष्पा श्रीवास्तव “शैली” के दोहे | प्रकृति हिंदीं गीत

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दोहे


निमिया डोले द्वार की,कहे पते की बात।
जो मुख को कडुआ करे,अंतर कर दे साफ।।

गेंदा खिल हँसता कहे,मैं बासंती यार।
कहने लगा गुलाब भी, सब को मुझसे प्यार।।

हाथों में मेहंदी रची, लगा महावर पावं।
चाँद देखने आज भी,आती मेरे गांव ।।

रूप आपनो देख कर,मत गोरी इतराय।
ये दुनिया अपनी नही,देगी तोहे जराय।।

जीवन की इस शाम में ,मन को ना भटका।
मैं मेरा की दौड़ में, तन को ना अटका।।


प्रकृति हिंदीं गीत

लौटा दो सावन की बौछार फिर से,

सुबकते-सुबकते धरा कह  रही है।

तपकर तड़पकर वो आँखे बिछना,

मगर मेघ पाहुन का फिर भी ना आना।

वृक्षों की शाखों से बतियाते पत्ते,

बचेगा चिरैया का अब नीड़ कैसे।

चिंता गजब की हृदय में बसाकर,

हिमालय से रोकर हवा कह रही है।

अब तो कभी हो सकेगी न पूरी,

सागर की मीठी नदी की प्रतीक्षा।

कहने लगा सिंधु नदियों से मिलकर,

घूमिल हुआ कैसे मुखड़ा ये उजला

नदी बोली बचकर चली आयी हूँ मैं,

स्वसों में विष की दवा घुल रही है।

 ५

छुपा चाँद बादल में छुप-छुप के निकला,

तारों को मिलने लगा फिर से मौका।

कहाँ खो गयी चांदनी की वो चादर,

जिसे ओढ़कर चाँद इतराता रहता।

कहा चाँद ने कि धवल रश्मियों को

न जाने कोई बददुआ लग गयी है।

धरा धैर्य खो देगी अम्बर जलेगा,

प्रलय जल का होगा न जीवन बचेगा।

बहुत हो गया अब तो उत्पात रोको,

प्रकृति की धरोहर से खिलवाड़ रोको।

हरे वृक्ष कटकर पड़े शव के  जैसे,

संध्या से मिलकर शमा कह रही है।।


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पुष्पा श्रीवास्तव “शैली”

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