सांसें | सम्पूर्णानंद मिश्र | Hindi Kavita
सांसें
विवेक की चलनी में
चल जाती है जब बुद्धि
तब मनुष्य अनैतिकता की
ज़हरीली हवा से विमुक्त होकर
नैतिकता की
किताब पढ़ने लगता है
और
वह उस दिन
सचमुच एक पूंछविहीन
जानवर की सफ़ से
असंपृक्त होकर
धर्म, जाति, भाषा, साम्प्रदायिकता
के सागर में डूबने से बचाता है
और भरता है
उनमें निरंतर सकारात्मक सोच की जीवनदायिनी सांसें
क्योंकि
विशुद्ध बुद्धिवाद का पथ
अहंकार के घोर घुप्प अंधेरी वीथिकाओं से होकर आतंक
और विनाश के जंगल तक ही जाता है
जहां दूसरों के सुख
के कीचड़ में
मनुष्य ईर्ष्या एवं द्वेष
का पत्थर फेंकता है
ताकि
वह सुखा सके फैले हुए
चरित्र की स्याही को
और
स्वघोषित कर दे कि
मैं आज भी हूं
एक विशाल बरगद
जिसकी छाया में
न जाने कितने
भटके हुए पथिक
मिटाते हैं अपनी थकान
आज भी
सम्पूर्णानंद मिश्र
शिवपुर वाराणसी
7458994874