सरसी छंद | आओ ऐसी बात करें हम | हिन्दी कविता
सरसी छंद | आओ ऐसी बात करें हम | हिन्दी कविता
आओ ऐसी बात करें हम
मापनी-सरसी छंद। 16,11
आओ ऐसी बात करें हम,सुने न कोई कान।
पर दर्शन में प्यारा हो वह,जैसे होत विहान।।
जैसे प्राची गुप-चुप प्रकटे,करे जगत उजियार।
उसके पद दर्शन से होता,जग का बेड़ा पार।।
नयन निमीलन से ही मधुवन,करता है गुंजार।
जड़-चेतन जागृत कर पाते,सुदृढ़ निज आधार।।
बायाँ जान न पाए कुछ भी करे दाहिना दान।
आओ ऐसी बात करें हम,सुने न कोई कान।।
सद्गुरु जब बोले थे उस दिन,चिन्मय है वह राम।
नहीं देह उसकी है ऐसी,जैसे अपना चाम।।
सदा एक रस भरा लबालब,मिटे ज्ञान से प्यास।
श्रद्धा उमड़ी उर तल पाया,नित्य नया उल्लास।।
खुले नयन ये नित-प्रति करते,उस छवि का ही पान।
आओ ऐसी बात करें हम,सुने न कोई कान।।
जिसको नित्य जपा करते हो,नहीं त्यागना भूल।
आ जाए प्रतिकूल परिस्थिति,नहीं गड़ेंगे शूल।।
बिन बोले कैसे वे जाने,जो जपता दिन-रात।
नया मोड़ सक्षम दे देते,भहराते हर घात।।
बिना कहे जो बात जान ले,ऐसा यह आह्वान।
आओ ऐसी बात करें हम,सुने न कोई कान।।
कब सूरज चिल्ला कर बोले,उठो गयी अब रात।
बिन बोले हर आँगन उतरे,ले ऊषा सौगात।।
जिसे जागरण प्यारा लगता,कैसे रहता खाट।
जिसको चलना ही भाता है,करता निर्मित बाट।।
दृग से दृग में प्रेषित करके,सद्गुरु देते ज्ञान।
आओ ऐसी बात करें हम,सुने न कोई कान।।
हुई दोपहर सूरज उतरा,सांध्य गगन की ओर।
पर कैसे अब मिट पाएगी,हुई हृदय जो भोर।।
सद्गुरु की महिमा का गायन,करे सकल संसार।
जो जाने माने यह दर्शन,उसका बेड़ा पार।।
दाएँ-बाएँ-सम्मुख-पीछे,जड़-चेतन का गान।
आओ ऐसी बात करें हम,सुने न कोई कान।।
बाबा कल्पनेश
सारंगापुर-प्रयागराज
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