आंसू भर रोए | प्रतिभा इन्दु | Hindi kavita
आंसू भर रोए | प्रतिभा इन्दु | hindi kavita
आंसू भर रोए
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जितना ही खो कर पाया है
उतना ही पाकर खो डाला !
दरवाजे पर हंस लेते हैं
आंगन में आंसू भर रोए !
आवाजें जो बंद कैद में
पुनः लौटकर आ जाती हैं ,
आंखों से निर्झर झरने सी
धारा बही चली जाती है ,
तिनके सी मैं पड़ी किनारे
चाह रही मझधार रोक लूँ ,
ऊपर- नीचे आते-जाते
कितनी बार नयन को धोए !
दरवाजे पर हंस लेते हैं
आंगन में आंसू भर रोए !
यह जीवन सुनसान अमावस
सा हर रात ठहर जाता है ,
आंखों में बेचैनी भरकर
इस दिल को उलझा जाता है ,
अंतर भी कुछ जान न पाया
रात – दिवस सब लगे बराबर ,
अब अंदर में ही घुट लेते
रहते हैं कुछ खोए खोए !
दरवाजे पर हंस लेते हैं
आंगन में आंसू भर रोए !
कितना ही कुछ खोने पर भी
जिज्ञासाएं बढ़ती जाती ,
देख- देख छवि दर्पण में मन
प्रतिमाएं नित गढ़ती जाती ,
चलते – चलते राहों में ही
धूल सने हर पांव दिखे जो ,
उग आई सुधियां जीवन की
पनपे बीज बिना ही बोये !
दरवाजे पर हंस लेते हैं
आंगन में आंसू भर रोए !
प्रतिभा इन्दु