jhuka hua dhvaj kavita-झुका हुआ ध्वज/सम्पूर्णानंद मिश्र

jhuka hua dhvaj kavita-झुका हुआ ध्वज/सम्पूर्णानंद मिश्र

झुका हुआ ध्वज


रामनाथ तुम क्यों

लड़खड़ा रहे हो‌ ?

तुम्हारे ओंठ क्यों

फड़फड़ा रहे हैं

क्या बात है

तुम्हारे चेहरे का ध्वज

क्यों झुका ‌हुआ है

पूरा देश नववर्ष का

जश्न मनाने जा रहा है

तुम्हारी चाल में फिर

इतनी सुस्ती ‌क्यों है

रामनाथ ने कहा

साहब !

हम लोगों के लिए नववर्ष

का कोई अर्थ नहीं है‌

मुझ जैसे गरीबों के

लिए सब व्यर्थ है

रोज़ कुंआ खोद कर

पानी पीना‌ है

और ऐसे ही जीना है

कोई फ़र्क ‌पड़ने

वाला नहीं है

हाथों में पड़ी दरारों

को भी कोई

नहीं भरने वाला है

पुराना साल हो या नया

क्या ‌मतलब है

भयानक रात

की तरह डराती है सयानी बिटिया

और यह महंगाई ‌हमेशा‌

मुंह चिढ़ाती है

अब तो इस कमाई ‌में

पेट ‌भर‌ पाना मुश्किल है

कैसे हाथ‌ उसके‌

पीले‌ कर पायेंगे

अब तो दो वक्त की रोटी

खिलाना भी मुश्किल है

ऐसी स्थिति में

एक बाप ‌डोली पर ‌बैठाकर

अपनी बेटी को विदा कर दे

यही उसके लिए नववर्ष ‌है।

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डॉ० सम्पूर्णानंद मिश्र

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