pushpa-srivastava-shelly-ke-dohe

कब के बिछुड़े | ढूढ़ती हूं | पुष्पा श्रीवास्तव शैली

कब के बिछुड़े | ढूढ़ती हूं | पुष्पा श्रीवास्तव शैली

१. कब के बिछुड़े

कब के बिछुड़े आज फिर जब तुम मिले तो
मोर सा मन आज फिर से नाचता है।
हो गई चंचल पवन सी पातियाॅं सब,
लग रहा पत्ते को पत्ता बाॅंचता है।

धान की बाली लिपट कर गले से,
भाव भर कर झूमती अंकवार देती।
और तलइया भी मचल कर केश खोले
बाॅंध पायल बूॅंद की झॅंकार देती।
खिड़कियोॅं से लग रहा चुपके से कोई,
कंकरी में प्यार भर कर मारता है।

कब के बिछुड़े आज फिर जब तुम मिले हो,
मोर सा मन आज फिर से नाचता है।

पुष्पा श्रीवास्तव शैली
रायबरेली

२. ढूढ़ती हूं

ढूढ़ती हूं
वो क्यारियों में उगे हुए छोटे छोटे
गेंदे के पौधे,
जिनको कहीं फिर से रोपना होगा।
फिर वो खिलेंगे,
सुंदर लगेंगे।
रोपती आ रही हूं इनको बचपन से,
जब हथेलियां इनको संभाल नहीं पाती थीं।
जब कपड़े मिट्टी में सन जाते थे।
कपड़े साफ करने की कोशिश में
कपड़े और भी गंदे हो जाते थे।
फिर वो मां की डांट का डर।
मेरी हथेलियों ने लेकिन डांट की
डर से पौधे रोपना नहीं छोड़ा।

जाने कब हथेली बड़ी हो गई।
पर आज भी डांट का डर,
आज अब कपड़े मिट्टी में नहीं
सनते।
सन जाता है मन उस गीली मिट्टी में
जिसमें बालपन की हथेली खो गई।

पुष्पा श्रीवास्तव शैली
रायबरेली

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *