कोई कली बगिया में जब खिलने को होती है / वेदिका श्रीवास्तव

कोई कली बगिया में जब खिलने को होती है

कोई कली बगिया में जब खिलने,को होती है,
बगिया को महकाएगी ये आस लिए होती है ,
नाजुक सी प्यारी सी उपवन में,कितनी,सुन्दर लगती है!!

स्वपन सलोने मन ही मन जाने कितने वो बुनती है,
मनभावन लगती है कितनी !सबकी नजर होती उस पर ,
कोई चाहे तोड़ना उसको ,कोई तोड़ सजाना चाहे ,
बड़ी कठिन होती जाती शनै -शनै गुंजा की ड़गर,
क्या होगा जीवन उसका जाने क्या कुदरत चाहे !
कोई कली……….

बचते बचाते किसी तरह खिलना उसने शुरू किया ,
बाग की दूजी कलियों संग सपने सुन्दर देख रही ,
चंचल भौरों ने दस्तक इस मोड़ पे देना शुरू किया ,
तूफान कभी आंधी से,गुंजा खुद को सहेज रही !
देख -देख इतराती हाय !कभी शरमाती थी ,
भँवरे से मिलने की बातें कलियों संग दुहराती थी ,
स्वपन नहीं ये देख सखी,भँवरा हर,कलियों से मिलता ,
उपवन की कलियां अक्सर गुंजा को ये समझाती थीं !
कोई कली ……….

मगर हठीली हठ पे अड़ी जाने क्या -क्या सोचा करती,
कभी शहीदों की अर्थी तो कभी गले वो चढ़ना चाहे ,
मैं ना तोड़ी जाऊँ ये बात माली से कहना चाहे ,
भयभीत मगर साहसी गुंजा बगिया को देखा करती ,
मेरा जीवन दाता मुझको कांटों से बचाता आया ,
नहीं कभी सौंपेगा उसको ज़िसको मेरी कदर नहीं ,
मालूम नहीं था एक दिन बगिया छोड़ मुझे जाना ,
राह निहारे गुंजा निशदिन आता अब वो भँवर नहीं!
कोई कली …………

आया एक दिन एक व्यापारी माली से सौदा करने ,
दे दो मुझको फूल ये सुन्दर मेरे मन को भा गयी ये,
मेरी भी बगिया महकेगी संग जाने की कीमत है इतनी ,
सुन माली फिर मौन रहा ,सोचा बात सही है क्या ये !
इसकी कमी से माना मेरी बगिया सूनी हो जाएगी !
मगर रही जो यहाँ हमेशा ,तोड़ी य़ा मसली जाएगी ,
जो सौंपू ‘हरि चरण ‘तो जीवन में क्या करे पाएगी !
व्यापारी ही सही मगर जीवन को जी तो पाएगी |
कोई कली …………

जाने कितने स्वपन को मारे नए स्वपन सजाती वो,
मगर व्यापारी कीमत मांगे सोच -सोच घबराती वो,
नजरों को भा गयी उसकी फिर क्यों दाम लगाया है !
महकाऊंगी बेशक बगिया पर ये सौदा समझ ना आया है |
नयी सुबह नयी किरणों संग नया -नया स्थान मिला ,
सहमी ,हल्की मुरझायी को कांटों का आवास मिला ,
फूल तो संग रहते लेकिन एक ना खुशबुदार मिला !
कंकड ,पत्थर ,कुडे -करकट का उसको संसार मिला |
कोई कली ………….

कैसे महकूँ य़ा महकाऊँ बगिया तो नजर ना आये ,
जैसे -जैसे दिन गुजरे बस वो मुरझाती जाये ,
छोड़ दे अपनी महक को तू अब ,ना हरि संग मेल बढ़ा ,
ऐसे ही वार फूल पर कुंठित मन से होते जायें ,
कहकर मुझको लाया था व्यापारी कि बाग वो देगा ,
कहा नहीं उस पल क्यों मुझसे मेरी पहचान भी लेगा!
डाली पर मैं लहराती थी कलियों संग कितनी थी खुश ,
सपनो को भी मारी मैं,नहीं,हूँ सकती कंकड से झुक !
कोई कली …………


हो सूरज की किरणें य़ा हो बुंदें सावन की ,
हो गयी कोसों दूर उससे बस सहती घाव पत्थर की ,
काम अलग दोनों के थे मेल नहीं उनका कोई ,
फूल को फूल मिला नहीं नियती भी थी रोयी !
कभी वो कुचली जाती तो कभी थी फेंकी जाती ,
माली की बगिया याद कर चुपके -चुपके खुद को बचाती ,
वार वो कंकड -पत्थर के निशदिन ही सहती जाती ,
जितनी मसली जाती वो उतने ही रंग बिखराती !
कोई कली …………..

फूल का जीवन पायी हूँ तो काम जगत के आऊँगी ,
एक नहीं सारी बगिया अब तो मैं महकाऊंगी ,
यूँ ही ना मैं मुर्झाकर गली -गली फेंकी जाऊँगी ,
नहीं किसी व्यापारी के संग कभी जाऊँगी ,
आयी फिर एक आंधी और वो वापस अपनी बगिया लौटी !

कुदरत का साथ मिला जब संग पवन के वो उड़ निकली ,
ज़ल की बुन्दे ,किरन सूर्य की ,मिट्टी की खुशबू का साथ,
रंग -बिरंगे फूलों का मिला दोबारा उसको साथ |
कोई कली ……………

सच है अब डाली पर फिर ना लगने पाएगी ,
मगर ख़ुशी है ‘हरि चरण ‘के काम वो अब भी आएगी ,
टूट गयी एक बार जो फिर राह अनेकों जाएगी ,
बनकर माला शहीदों की जीवन को सफल बनाएगी ,
य़ा चढ़ अर्थी पर य़ा उपहारों में काम किसी के आएगी ,
जो माला में सूखी भी तो महक अपनी बिखराएगी ,
गजरों में सजकर प्रियतम की प्रेयसी बन जाएगी ,
कर्णों की शोभा बन ‘कर्णफूल ‘कहलाएगी !
टूट गयी एक बार जो फिर ,राह अनेकों जाएगी
कोई कली बगिया में जब खिलने को होती है…………..

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वेदिका श्रीवास्तव

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