मर्यादा पुरुषोत्तम राम का विरह / सीताराम चौहान पथिक
मर्यादा पुरुषोत्तम राम का विरह
मर्यादा पुरुषोत्तम राम का विरह ।
मैं राम , सिये तुम कहां ॽ
कहीं से बोलो ।
पर्वत नदियो वॄक्षो में गुॅथी लताओं ,
झर-झर झरते झरनों ,
कुछ पता बताओ ,
है कहां सिया ॽ हो साक्षी,
तुम्हीं कुछ बोलो – मैं राम ,
सिये तुम कहां ॽ
कही से बोलो ।
कंचन – मॄग के छल को
मैंने था समझाया ।
हा भाग्य , संवरण उसका
तुम्हें लुभाया — ।।
होनी तो होकर रही
— कोई कुछ बोलो ।
मैं राम — सिये तुम कहां ॽ
कहीं से बोलो ।
हे पंचवटी के खग-मॄग ,
नभ के तारों ।
हे भूमि, कहां है सिया-सुता ॽ
उच्चारो ।।
तुमने तो देखा होगा ,
— कोई कुछ बोलो ।
मैं राम , सिये तुम कहां ॽ
कही से बोलो ।
प्रिय लखन, सिया ने
रेख ना लांघी होती ।
तो आज — — सिया
कुटिया में सकुशल होती।
आँखों से बहते अश्रु -कणों ,
कुछ तुम ही बोलो — ,
मैं राम , सिये तुम कहां ॽ
कहीं से बोलो ।।
हे राम , जटायु मम नाम ,
सिया को मैंने देखा ।
पुष्पक में लंकेश ,
रुदित सीता को देखा ।
रावण संग लड़ कर
कटे पंख , भव – बंधन खोलो ।
हे राम, निराशा त्याग ,
दिशा – दक्षिण की हो लो ।।
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