nahin the ve graam- devata/नहीं थे वे ग्राम- देवता
nahin the ve graam- devata: डॉ. सम्पूर्णानंद मिश्र की रचना नहीं थे वे ग्राम- देवता धूरियाए से जिस्म से जिनके प्रथम पंक्ति का भाव यह हैं कि ग्राम देवता की छवि लिए ये लोग कौन थे ।जिन्होंने गणतंत्र दिवस पर हिंदुस्तान की अस्मिता में दाग लगा दिया ये कोई किसान तो नही हो सकते क्योंकि किसान तो देश का पहला जवान होता है जो देश का पेट भरता है इन्ही भावों के साथ प्रस्तुत है रचना ।
नहीं थे वे ग्राम- देवता
नहीं थे
वे ग्राम- देवता
धूरियाए से जिस्म से जिनके
केवल संगीत की धुन
सुनाई पड़ती थी कानों में
जो पके थे एक अलग ही आंवे में
खेत- खलिहान ही जिनका मज़हब
कर्म ही जिनका हथियार
और हल, बैल जिनकी जागीर
खर आतप भी
जिनकी साधना के
ब्रहृचर्य को नहीं
कर पाते थे स्खलित
निकल जाते थे प्रात:
पूरे हिंदुस्तान की उदर- पूर्ति के लिए
एक अलग ही हाड़- मांस के
तब वे कौन थे
जो इनकी खाल ओढ़े
अपने क्रूर- पंजों से
तार- तार कर दिया
धरा- बधू की अस्मिता को
बदरंग कर दिया मज़हब को
नोंच डाली सारी रवायतों को
अपकृत्य के तांडव
से इनके थरथरा उठा पूरा राष्ट्र
सिहर उठी मर्यादाएं
फट गए सारे पन्ने सदाचार के
तो क्या वे ग्राम- देवता नहीं थे
जो गणतंत्र की हत्या कर भागे थे
उस गौरवशाली पारंपरिक
मंदिर पर नंगा नाच नाचे थे
तो क्या
होरी और गोबर नहीं थे
उस भीड़ में
तो फिर कौन थे वे
जो ग्राम- देवता की
खाल ओढ़े थे ?
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