Namami ganga kee vyatha/सीताराम चौहान पथिक

गंगा की व्यथा ।।

(Namami ganga kee vyatha)

युगों- युगों  से  गंगा  बहती ,
जन – सन्देश       सुनाती ।
जागो    मेरे     भारतवासी ,
मां    गंगा    तुम्हें   जगाती ।

मेरे   बच्चो- मां   कहते   हो ,
कह कर  लाज   ना     आती ।
मां  के जल को दूषित करते,
मोक्ष – कामना —— भाती ।

मोक्ष  नहीं   मिलता   है ऐसे ,
तुम    हो    मां    के    घाती ।
बन्द   करो   मल- मूत्र   बहाना ,
फटती       मां    की    छाती ।

‌श्रेष्ठ   पूर्वज    थे    तुम्हारे ,
मधुर    स्मृति     मन – भाती ।
कलकल- छलछल   बहती थी मैं ,
और     प्रकृति    लूटाती    थाती ।

संक्रमित प्रदूषित गंदे   नाले ,
यमुना      बहना     पछताती ।
सकल   नगर   का कचरा बहता,
दुर्गन्ध    वहां    से     आती ।

सहज   प्रवाह   को  तुमने   रोका ,
ऊंचे       बांध      बना     कर ।
हड़बड़ाई    सीमा    में  बंध  कर ,
बहा    दिए    सकल    चराचर ।

मां- गंगे नमामि गंगे , कहते हुए तुम थके नहीं ।
कल-पुर्जे — विष भरे रसायन
खूब      बहाए —– रूके नहीं ।

जन- रुचियों   में   संशोधन कर ,
स्वच्छ   हवन शुभ कर्म करो।
पूर्वजों    से   शिक्षा    ले   कर ,
गुरुकुल – परिपाटी ग्रहण करो

गंगा   हूं   मैं – बच्चे   हो तुम ,
स्नेह   लुटाती    हूं तुम पर ।
सीमा का जब अतिक्रमण करो ,
ज्वाला   बरसाती    हूं तुम पर ।

आई   स्वर्ग   से   भू-तल पर मैं ,
शिव    की   जटाओं में बहती हूं।
कवि   पथिक   तुम्हीं   समझाओ इन्हें ,
सब   सभ्य   बनें-मै   कहती हूं ।।

Ganga- kee- vyatha

एस आर चौहान पथिक
नयी दिल्ली

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