प्रिय कवि धूमिल के जन्मदिन पर | हूबनाथ | कवि धूमिल

प्रिय कवि धूमिल के जन्मदिन पर | हूबनाथ | कवि धूमिल

प्रिय कवि धूमिल के जन्मदिन पर

कविता
जलते हुए जंगल में
हरी दूब है!

बेदर्दी से नोंचकर खेत से
जो फेंका गया
वह कतवार नहीं
किसान है

उसके सीने पर ,पीठ पर
दिनरात जलने का
निशान है

वह जो गाँव छोड़ने को
मजबूर है
अढ़तिया या बिसाती नहीं
मज़दूर है

सारा गाँव
नई बहू की तरह
दिनभर खटता है
रात को मुखिया की
महफ़िल में
नचनिया लौंडे सा सजता है

मुखिया
जो कुर्सी का दलाल है
यही तो लोकतंत्र का
कमाल है

जिसके पास
सबसे ज़्यादा लठैत हैं
वहीं इलाके का
सबसे बड़ा अमीर है
कहलाने को समाजसेवक
वैसे नामी गिरामी डकैत है

तुम्हारी कथा
जो कभी पट थी
आज चारों खाने
चित्त है

जिसके पास वित्त है
वही धर्म का आधार है
बाकी सब घूरे पर
मँड़ार में या पनाले में

ज़िंदगी साली बीत रही
कसाले में

अनपढ़
डिग्रीधारियों की फौज
दीमक सी लगी है
शिक्षा संस्थानों में

और वह
जो इनका सेनापति है
धुर से ही मंदमति है

चौपाई कुर्सी में
अपने दो पैर साट कर
कभी नाचता है
कभी गाता है

दरअसल
वह सिर्फ़ चिल्लाता है
कि वही सबसे महान है

साहित्य की दुनिया में
उसके कहे साँझ
उसके कहे बिहान है

कविता रोज़
उसके बिस्तर से उतरती है
उपन्यास पानी भरता है
आलोचना
घर की लौंडी है

सत्ता से उसकी साँठगाँठ है
नगर कोतवाल
उसका जीजा है
उसका रुतबा रुबाब
झूठ और धूर्तता का
नतीजा है

तुम जिस सिरदर्द से मरे
वह दर्द
मज़लूमों
मेहनतकशों का था

वह दर्द
जस का तस
संसद से सड़क तक
दर दर भटक रहा है

तुम्हारा चिंतन
तुम्हारी वैचारिकी
मुहावरेबाज़ी के सूप में
दृष्टिहीन आलोचक
फटक रहा है

प्रजातंत्र का दैत्य
निरीह प्रजा को गटक रहा है

जिस फंदे से
झूले थे शहीद हमारे
वह अब भी लटक रहा है

और पूछ रहा है-

आज़ादी के
अमृत महोत्सव में
किसके हिस्से अमृत आया

कौन महोत्सव की भीड़ में
भगदड़ का हिस्सा है
यह प्रजातंत्र है या
अल्फ़ लैला का क़िस्सा है

जो खतम होने का
नाम ही नहीं ले रहा

-हूबनाथ

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