Poem in the time of coronavirus | इंसान – इंसान के काम ना आ रहा
Poem in the time of coronavirus
इंसान – इंसान के काम ना आ रहा,
इंसान- इंसान के काम ना आ रहा,
यह कैसा घनघोर अंधेरा छा रहा,
त्राहिमाम मची हैं जीवन में
यह कौन हैं जो कहर बरसा रहा,
जीवन के इस सफर में अब जीत कौन जाएगा,
जो हारा नहीं हैं कभी वह क्या बच पाएगा।
कैसी यह दूरियां हैं कैसी मजबूरियां हैं,
हर तरफ बस एक आह और सन्नाटा सा छा रहा,
मौत जिनको ना आनी थी उनको भी संग ले गई ,
नाम, इल्जाम कोरोनावायरस पर मढ़ गई।
काल के गाल में निर्दोष लोग भी समा रहे,
मौत के ये नज़ारे ये मंज़र कहां से आ रहे,
कोरोना ने दाग़ दामन पर लगा लिया,
वह भी समय चक्र के समाचार पर आ गये।
आना जाना तो जीवन का एक फलसफा हैं,
आना जाना तो जीवन का एक फलसफा हैं,
पर महामारी के रौद्र रूप से घर- मोहल्ला सजा हैं,
हर कोई अपनो के लिए रो पड़ा हैं,
जो जहां हैं वहीं रुका खड़ा हैं,
अपने-अपनों का हाथ अब छोड़ने लगे हैं,
क्योंकि हर घर में कोई बिस्तर पड़ा हैं।
श्रीमती प्रियंका
असिस्टेंट प्रोफेसर।
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