समसामयिक सवालों से टकराती कविताएँ/ डॉ. रामसुधार सिंह
समसामयिक सवालों से टकराती कविताएँ
हमारे प्राचीन शास्त्रों में कविता लिखने का कारण नैसर्गिकी प्रतिभा बताया गया है। इस अर्थ में हर व्यक्ति कवि है। इस अर्थ को विस्तार देते हुए रीतिकाल के कवि भिखारी दास ने ठीक ही लिखा है –
शक्ति कवित्त बनाईवे की जिहि जन्म नछत्र में दीनी विधाते काव्य की रीति सिखी, सुकवीन सों देख सुनी बहुलोक की बातें ।
विवेच्य काव्य संग्रह ‘कराहती संवेदनाएं के कवि संपूर्णानन्द मिश्र को नैसर्गिक प्रतिभा के साथ कविता का एक परिवेश एवं संस्कार प्राप्त हुआ है अपने पिता से। साहित्य के परिवेश ने कवि को संस्कारित कर संवेदनशील बनाया और उसे सृजनशीलता की ओर प्रेरित किया। एक कुशल प्राध्यापक के रूप में अध्यापकीय कार्य से जुड़े संपूर्णानन्द मिश्र की कविताएँ- एक ऐसी दुनिया की तलाश करती हैं, जिसमें आदमीयत, इंसानियत और आत्मीयता बची रहे, क्योंकि आज की इस उपभोक्तावादी संस्कृति ने आदमी को संवेदनशून्य बनाकर रख दिया है मुक्त छन्द की इन कविताओं में किन्हीं शास्त्रीय नियमों का अनुसरण नहीं किया गया है इन कविताओं में एक खास तरह की उन्मुक्तता है। इनमें कथ्य का आधार प्रमुख है। संग्रह की अधिकांश कविताएं पाठक के साथ संवाद करती हुई उसे अपने साथ लिए रहती हैं। इस कृति में श्री मिश्र का पूरा परिवेश, व्यक्ति, समाज और लोक के प्रति एक विशेष प्रकार का अनुराग प्रतिविम्बित हुआ है कवि का रचनाशील मानस अपनी पूरी संवेदना के साथ कवि-कर्म में संलग्न है संग्रह की ढेर सारी कविताएँ जीवन की विभिन्न स्थितियों, अनुभूतियों और घटनाओं की अभिव्यक्ति हैं।
वर्तमान वैश्विक महामारी ने पूरे विश्व के समक्ष एक बड़ा संकट खड़ा कर दिया है। एक अदृश्य वायरस ने आदमी को उसकी औकात बता दी है। सब कुछ पास होते हुए भी आज का मनुष्य दुःखी एवं असन्तुष्ट है। कवि संपूर्णानन्द मिश्र ने आज के बदलते परिवेश को बहुत करीब से देखा है और इधर लगातार अपनी कविताओं के माध्यम से इस बदलाव को अभिव्यक्त कर रहे हैं। कवि के भावलोक में एक गहरी विकलता है जो विविध रूपों में व्यक्त होती रही है करोना के इस संकट में कविता लिखने वालों की बाढ़-सी आ गई है, किन्तु अति बौद्धिकता एवं सायास होने के कारण ये कविताएँ पाठक को अपने साथ जोड़ नहीं पाती हैं। मिश्र जी की ये कविताएँ संवेदनशील और सहज मन से सृजित होने के कारण पाठक को बॉंध सकने में समर्थ बन पड़ी हैं।
संग्रह की अधिकांश कविताएँ वैश्विक महामारी के दौर में मनुष्य की बदलती भावनाओं से जुड़ी हुई हैं स्वार्थ और भौतिकता की अंधी दौड़ में मनुष्य प्रकृति की उपेक्षा करता गया। इस दौड़ में मनुष्य ने अपनी सुख-सुविधाएँ भले ही बढ़ा लीं, किन्तु अन्तर का प्रेम सूखता चला गया। कवि इस घने अंधेरे में स्नेह का एक दीपक जलाना चाहता है। उसे लगता है कि आज संवेदनाएँ मर गई हैं, ये स्वार्थपरता की भट्ठी में पूरी तरह जल चुकी हैं। कवि को विश्वास है कि इस विध्वंस से हमें सृजनशीलता ही बचा सकती है। आज स्वार्थ व अज्ञानता की बर्फ घुलने से सभी रिश्ते ठंडे हो गये हैं, संबंधों के पात झर रहे हैं, डालें भी सूख रही हैं। अपनी बात को इन ठंडे पड़ते रिश्तों से शुरू कर कवि उसका विस्तार करते हुए उसे आज के सरकारी भ्रष्टाचार तक ले जाता है। उसे लगता है कि-
किसकी पूजा करे
सब संक्रामक हैं
क्वेरेंटाइन हैं
लाकडाउन में हैं
राम और शिव भी अवकाश पर हैं
वर्क फ्राम होम कर रहे हैं
केवल नौकरी जिला रहे हैं।
कवि का मानना है कि विध्वंस से अधिक ताकत निर्माण में होती है, आवश्यकता है धैर्य बनाये रखने की। राम मन्दिर निर्माण को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करते हुए कवि वक्त के सन्दर्भ में सिकन्दर और सुकरात को प्रस्तुत करता है और निष्कर्ष देता है कि जीवन में उतना ही फैलाओ साम्राज्य अपना जितना महसूसते हो जरूरी।
आज की गलाकाट प्रतियोगिता में व्यक्ति आकाश को छूने की होड़ में लगा हुआ है। आत्महत्या तथा अवसाद’ शीर्षक दो कविताओं में इन्हीं चिन्ताओं को व्यक्त किया गया है।
जैसा पहले संकेत किया गया है कि संग्रह की अधिकांश कविताएँ समसामयिक संकट और मनुष्य की असहायावस्या से सम्बन्धित हैं। कोरोना समय में कवि मजदूरों की स्थिति विशेषतः शहरों से गाँव की ओर लौटते मजदूरों को देख विक्षुब्ध है। वह कहता है कि –
अपना-अपना लहू बहाकर
हमारे देश के मजदूरों ने उन
सड़कों-गलियों को दुल्हन की तरह सजाया था
आज उन्हें क्या मिला (एक नया हिन्दुस्तान)।
कवि की दृष्टि में यह प्रश्न अंतहीन है एक ओर भूख से छटपटाते नौनिहाल हैं, दूसरी ओर पूंजीवाद अपनी-अपनी प्रियतमाओं के साथ रनिवास में निद्रारत है।
फिर भी एक आखिरी उम्मीद लिए वह वर्ग शहरों से गाँव की ओर लौट रहा है।
जिंदा रहने की आखिरी उम्मीद लिए यह सर्वहारा वर्ग स्वयं बैल बनकर अपनी-अपनी गृहस्थी पीठ पर लादे हिन्दुस्तान की दूरियों को अपने हौसले की बाहों में समेटे राजपथ से गाँव की ओर जा रहा है।
आज के वक्त पर कवि की सजग दृष्टि है। वह देख रहा है कि आज बेईमानी कई पाँवों से चलती हुई फल-फूल रही है इसने ईमानदारी को लेंगड़ी कर दिया है और उसके मुँह पर जोरदार तमाचा जड़ दिया है। वह आश्चर्यचकित है कि यह कैसा वक्त है कि छली सरेआम घूम रहे हैं, लोकतंत्र की रडियाँ सत्ता की वीथिकाओं में अपने ग्राहकों को लुभा रही हैं (यह कैसा वक्त है)। इस असहाय स्थिति में भी कवि आशा का दामन पकड़े हुए है। वह कहता है कि यह वक्त भी बीत जायेगा। ‘माना कि आज सारे जुगनू तम से संधि कर उजाले को चिढ़ा रहे हैं फिर भी उजाले को लम्बे समय तक कैद में नहीं रखा जा सकता है। कवि को पूरा विश्वास है कि झूठ के वक्ष को चीरकर सत्य का सूर्य कल अवश्य उदित होगा। निराशा के बीच आशा का यही संदेश कविता की शक्ति हुआ करता है । कवि समाज के बदलाव को बखुबी देखता है और तमाम विसंगतियों को उजागर करता हुआ एक बड़ा संदेश भी देता है। उसकी अभिव्यक्ति कभी-कभी व्यंग्य का रूप ग्रहण कर लेती है सब रचनात्मक हो गये हैं शीर्षक कविता में स्त्रियों की रचनात्मकता की चर्चा करते हुए लाकडाउन में लिखी जा रही तमाम कविताओं पर व्यंग्य किया गया है सचमुच इस कोरोना काल में कवियों का प्रादुर्भाव बड़ी तेजी के साथ हुआ है ऐसे कवियों और कविताओं पर व्यंग्य करते कवि कहता है कि –
आजकल इस लाकडाउन में असंख्य पुरुष भी रचनात्मक हो गये हैं ऐसी ऐसी कविता लिख रहे हैं आज काव्य-देवी भी रो रही हैं।
इसी तरह रंग बदल लेता है’ शीर्षक कविता में गिरगिट की तरह रंग बदलने वाले मनुष्यों पर तीखा व्यंग्य किया गया है इतना रंग बदलता है कि कोई भी खा जाता है धोखा नहीं पहचान पाता है उसके वास्तविक रंग-रूप को प्रेम के मुखौटे में छिपे स्वार्य के विकृत चेहरे की पहचान नहीं कर पाता है।
कुल मिलाकर संग्रह की कविताओं का फलक अत्यन्त विस्तृत है समाज के बदलाव के साथ व्यक्ति में हो रहे बदलावों का कवि सहज पारखी है । उसकी यह यात्रा शहर से गाँव तक की है। इन कविताओं की भाषा सहज संप्रेषणीय है। सुन्दर प्रतीकों एवं मुहावरों के प्रयोग से भाषा का सौन्दर्य बढ़ गया है में इस काव्य-संग्रह के प्रकाशन पर संपूर्णानन्द मित्र जी को ढेर सारी बधाइयाँ एवं शुभकामनाएँ प्रेषित करता हूँ।
डॉ. रामसुधार सिंह
पूर्व विभागाध्यक्ष, हिन्दी उदय प्रताप स्वायत्तशासी महाविद्यालय वाराणसी
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